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ठन सकती है लालू और युवराज में!

                                        आईपीएल फूटी आंख नहीं सुहा रहा बिहारी क्षत्रप को

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली । कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी और इक्कीसवीं सदी के स्वयंभू प्रबंधन गुरू लालू

प्रसाद यादव के बीच रार बढ़ने के संकेत मिल रहे हैं। इन दोनों के बीच विवाद का कारण इंडियन प्रीमियर

क्रिकेट लीग है। एक ओर राहुल जहां आईपीएल की माला जप रहे हैं, वहीं दूसरी ओर लालू प्रसाद यादव

पानी पी पी कर आईपीएल को तबियत से कोस रहे हैं।

कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10, जनपथ (बतौर सांसद सोनिया गांधी को आवंटित

सरकारी आवास) के भरोसेमंद सूत्रों का कहना है कि लालू यादव ने पिछले दिनों जब कांग्रेस की सुप्रीमो

श्रीमति सोनिया गांधी से मुलाकात की तब उन्होंने आईपीएल के बारे में दिल खोलकर जहर उगला।

सूत्रों की मानें तो लालू यादव ने सोनिया को यहां तक कह डाला कि अगर जल्द ही आईपीएल पर रोक नहीं

लगाई गई तो आने वाले समय में इसके विवादों का सीधा असर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की छवि पर

पड़ सकता है। लालू की बातें सुनकर सोनिया गांधी भी सोच में पड़ गईं और उन्होंने मूलतः पत्रकार और

लाल बत्ती धारी क्रिकेट के कथित ज्ञाता राजीव शुक्ला को बुला भेजा। राजीव शुक्ला के साथ चर्चा के

बाद सोनिया कुछ संतुष्ट नजर आईं, वरना वे तो लालू की बातों में आकर आईपीएल पर ताला लगवाने का

मन बना चुकी थीं।

सूत्रों ने कहा कि राजीव शुक्ला ने कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी को बताया कि लालू

प्रसाद यादव को वैसे तो फटाफट क्रिकेट से अधिक लेना देना नहीं है, मगर लालू का पुत्र प्रेम उन्हें

आईपीएल में दखल देने पर मजबूर कर रहा है। लालू के पुत्र तेजस्वी का नाम दिल्ली डेयर डेविल्स की

टीम के संभावित 33 खिलाड़ियों की फेहरिस्त में शामिल था।

पूरा का पूरा आईपीएल का तमाश हो गया, पर लालू पुत्र तेजस्वी को एक बार भी मैदान में उतरने का मौका

नहीं मिला। और तो और दिल्ली डेयर डेविल्स का प्रबंधन अब लालू पुत्र को बाहर कर अन्य खिलाड़ी को

इसमें स्थान देना चाह रहा है। फिर क्या था लालू का जैसे ही इस बात का इल्म हुआ उनका गुस्सा सातवें

आसमान पर पहुंच गया, आखिर किसने इतनी हिमाकत कर डाली कि लालू पुत्र तेजस्वी को मैदान में ना

उतारकर बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा हो। अर्थात तेजस्वी की क्रिकेट की दुनिया में कहानी आरंभ

होने के पहले ही समाप्त हो गई।

यहां उल्लेखनीय होगा कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के सर पर इन दिनों क्रिकेट का भूत सवार है।

राहुल गांधी उठते बैठते क्रिकेट की ही बातें सोचते रहते हैं। आलम यह है कि लोगों से बातचीत के दरम्यान

भी वे क्रिकेट विशेषकर आईपीएल यानी फटाफट क्रिकेट को जरूर बीच में लाते हैं।

इन परिस्थितियों में लालू प्रसाद यादव का राहुल से नाराज होना स्वाभाविक ही है। कहते हैं कि अहम्

के चलते लालू प्रसाद यादव इस असली मामले के बारे में ना तो सोनिया से ही चर्चा कर रहे हैं और ना ही

राहुल के ही संज्ञान में इस बात को ला रहे हैं। हाल ही में क्रिकेट के कथित भगवान, मास्टर ब्लास्टर

सचिन तेंदुलकर की राज्य सभा से एंट्री की खबर ने भी लालू के मुंह में कुनैन की कड़वी गोली फोड़कर

उनके मुंह का स्वाद कसैला कर दिया था।

सुनाई देने लगी राष्ट्रपति चुनाव की रणभेरी

(शरद खरे)

नई दिल्ली । राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुनने के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का नेतृत्व

अपने सहयोगी दलों का अधिकतम समर्थन प्राप्त करने का प्रयास करेगा, क्योंकि ऐसे उम्मीदवार को

ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक दलों का विश्वास और समर्थन हासिल होना चाहिए। यह बात विधि मंत्री

सलमान खुर्शीद ने कल चेन्नई में कही।पिछले सप्ताह कांग्रेस ने पार्टी तथा यू पी ए अध्यक्ष सोनिया

गांधी को राष्ट्रपति उम्मीदवार चुनने का अधिकार दिया था।

इस बीच भारतीय जनता पार्टी ने कहा है कि सत्तारूढ़ यू पी ए गठबंधन द्वारा राष्ट्रपति पद के लिए

अपना उम्मीदवार घोषित करने के बाद ही वह राष्ट्रपति चुनाव के बारे में अपनी रणनीति का खुलासा

करेगी। हैदराबाद में भाजपा प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने पत्रकारों से कहा कि इस बार राष्ट्रपति पद का

चुनाव चौंका देने वाला होगा।

उधर, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति ने वाम और अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों के

साथ विचार-विमर्श के बाद अपने पोलित ब्यूरो को राष्ट्रपति चुनाव के बारे में पार्टी की रणनीति तय

करने का अधिकार दे दिया। नई दिल्ली में पार्टी की केन्द्रीय समिति की दो दिन की बैठक में कल यह

निर्णय किया गया।

राष्ट्रपति चुनाव के मसले पर कांगेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की सक्रियता से राजनीतिक गलियारों में

इसे लेकर सरगर्मियां तेज हो चली हैं। यूपीए के घटक दलों के साथ सोनिया की मुलाकात के बाद आ रहीं

खबरें बता रही हैं कि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी यूपीए की ओर से सबसे प्रबल दावेदार के रूप में उभर

रहे हैं। कांग्रेस कार्यसमिति ने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चयन के लिए जब से पार्टी अध्यक्ष

सोनिया गांधी को अधिकृत किया है, तब से यूपीए के अनेक घटक दलों की उनसे मुलाकात हो चुकी है।

दो दिन पहले डीएमके नेताओं एमके स्टालिन और टीआर बालू ने सोनिया से मुलाकात की थी। इससे पहले

राष्ट्रीय लोकदल के सुप्रीमो अजित सिंह भी कांग्रेस अध्यक्ष से मिल चुके हैं। हालांकि न तो सोनिया

गांधी ने और न ही सहयोगी दलों ने अपने पत्ते खोले हैं, लेकिन करीबी सूत्र बता रहे हैं कि राष्ट्रपति पद

के लिए यूपीए के उम्मीदवार बतौर वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को लेकर उनकी राय बनती जा रही है।

इसकी एक वजह यह भी बताई जा रही है कि यूपीए के अधिकांश घटक दलों ने सोनिया के साथ मुलाकात में

प्रणब दा का नाम आगे बढ़ाया है।

इतना ही नहीं, इससे पहले समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव भी खुलकर प्रणब के पक्ष

में आ चुके हैं। सपा को अपने खेमे में लेने के लिए भी कांग्रेस उनके सुझाव की अनदेखी नहीं कर सकती।

लेकिन कांग्रेस के लिए अब भी सबसे बड़ी बाधा तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ही हैं। वे पहले

ही साफ कर चुकी हैं कि उनकी पहली पसंद मीरा कुमार हैं। वे अब भी इसी पर अडिग हैं। हालांकि सरकार

ने पेंशन फंड नियामक एवं विकास प्राधिकरण बिल को कुछ समय के लिए टालकर ममता को मनाने की

कवायद तेज कर दी है।

उधर, राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एनडीए ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं। इस बीच, एनसीपी नेता

पीए संगमा ने शुक्रवार को भाजपा नेता और एनडीए के कार्यकारी चेयरमैन लालकृष्ण आडवाणी से

उनके निवास पर मुलाकात की। इससे पहले अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता और बीजद प्रमुख नवीन

पटनायक ट्राइबल के नाम पर संगमा का नाम आगे बढ़ा चुके हैं।

हालांकि भाजपा के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार एनडीए संगमा के नाम का समर्थन करने के बजाय अपना

ही उम्मीदवार उतारेगी, ताकि यह दर्शा सके कि वह सरकार के साथ नहीं है। शुरुआती ना-नुकुर के बावजूद

राष्ट्रपति पद के लिए यूपीए की ओर से वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ही सबसे प्रबल दावेदार के रूप

में उभर रहे हैं। यूपीए के घटक दलों ने सोनिया गांधी के साथ मुलाकात में भी प्रणब दा का नाम ही आगे

बढ़ाया है। हालांकि अंतिम निर्णय सोनिया को ही करना है।

माना जा रहा है कि इस सप्ताह के अंत में इलाज के लिए विदेश जाने के पहले ही सोनिया गांधी द्वारा अपने

उम्मीदवार की घोषणा कर दी जाएगी इसके लिए सबसे उपर प्रणव मुखर्जी का नाम आ रहा है।

तलवार भांजते भाजपाई क्षत्रप

(महेश रावलानी)

नई दिल्ली (साई)। भाजपा में अब वर्चस्व की लड़ाई सड़कों पर आ गई है। नितिन गड़करी को दूसरे टर्म

के लिए हरी झंडी मिलने, नरेंद्र मोदी का कद अनायास ही बढ़ने और एल.के.आड़वाणी को बलात हाशिए पर

लाने के परिणाम स्वरूप भाजपा के अंदर ही अंदर सियासी उबाल आने लगा है। भाजपा में बयान युद्ध चरम

पर पहुंच गया है। आड़वाणी के इशारे के बाद अब भाजपा के क्षत्रपों के बीच बयान युद्ध चरम पर पहुंच

गया है।

भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की ओर से पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को आड़े हाथ लिए

जाने के दूसरे दिन पार्टी के मुखपत्र में एमपी भाजपा के निजाम प्रभात झा ने गुजरात के मुख्यमंत्री

नरेन्द्र मोदी पर प्रहार किया गया है। किसी का नाम लिए बिना इसमें कहा गया कि किसी के ऐसे

व्यवहार से पार्टी नहीं चल सकती कि सिर्फ उसकी चलेगी, नहीं तो किसी की नहीं चलेगी।

पार्टी के मुखपत्र कमल संदेश के ताजम अंक के संपादकीय में मोदी का नाम लिए बिना कहा गया कि

पार्टी व्ययस्थाओं से चलती है। पार्टी किसी एक के सहयोग से नहीं, बल्कि सभी के सहयोग से चलती है।

सिर्फ मेरी ही चलेगी, मेरी नहीं तो किसी की नहीं चलेगी, की तर्ज पर न संगठन चलता है, न समाज और

न ही परिवार।

गौरतलब है कि हाल में मुंबई में संपन्न भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में मोदी ने इस शर्त पर उसमें

शिरकत की कि पहले राष्ट्रीय कार्यकारिणी से उनके कट्टर प्रतिद्वन्द्वी सुनील जोशी को हटाया जाए।

गडकरी को उनकी इस मांग के सामने झुकना पड़ा। इससे पूर्व दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की

बैठक में जोशी को हटाए जाने की मांग नहीं मानी जाने के कारण मोदी उसमें नहीं आए थे।

कमल संदेश में कहा गया कि जरूरत से ज्यादा जब हम किसी की प्रशंसा करते हैं तो व्यक्ति के बिगड़ने

की संभावना का द्वार हम स्वतरू खोल देते हैं। इसमें कहा गया कि ऊंचाई पर हम जाते हैं तो हमारी समक्ष

की ऊंचाई भी बढ़नी चाहिए। पर अक्सर देखा गया है कि अधिक ऊंचाई पर जाने पर आदमी यह जानते हुए

भी कि उसे एक न एक दिन नीचे आना होगा, बावजूद इसके वह नीचे वालों पर आंखे तरेरता है। संपादकीय

में कहा गया कि भाजपा शासित कर्नाटक और गुजरात में पिछले दिन जो कुछ हुआ, उससे आम आदमी

को काफी तकलीफ हुई। तकलीफ उनको भी हुई है जो भाजपा के कार्यकर्ता और समर्थक हैं।

भाजपा नेताओं को जल्दबाजी नहीं करने और अपने वजूद की लड़ाई नहीं लड़ने की नसीहत देते हुए इसमें

कहा गया कि कभी कभी अधिक भीड़ होने के कुछ आवश्यक यात्री को भी स्टेशन पर ही रुक जाना पड़ता

है। वह यात्री दूसरी रेल का इंतजार करता है। वह जल्दबाजी में न किसी यात्री को घसीटता है, न रेल पर

पथराव करता है और न पटरी उखाड़ता है।

आडवाणी की तारीफ करते हुए इसमें कहा गया कि अटलजी, आडवाणीजी और डॉ मुरली मनोहर जोशीजी

भारतीय राजनीति के क्षितिज पर इसलिए सालों से चमक रहे हैं कि इन्होंने सदैव संगठन को सर्वाेपरि

माना है। अपने को भाजपा के भीतर रखा, बावजूद इसके कि उनका कद बहुत बड़ा है पर उन्होंने अपने कद

को पार्टी के कद से ऊंचा नहीं किया।

उधर आडवाणी ने कल अपने ब्लाग में गडकरी का नाम लिए बिना उनके कुछ फैसलों पर खुली नाराजगी

जताते हुए कहा था कि भाजपा को अंतरावलोकन करने की जरुरत है, क्योंकि जनता अगर संप्रग से क्रुध

है तो वह भाजपा से भी निराश है। उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और झारखंड

के संबंध में पार्टी के कुछ निर्णयों से संप्रग सरकार के भ्रष्टाचार के विरुद्ध भाजपा के अभियान को

धक्का लगा है।

विवाद को हवा मिलते ही अब एमपी भाजपाध्यक्ष प्रभात झा रक्षात्मक मुद्रा में आ चुके हैं। इंदौर में

वरिष्ठ भाजपा नेता प्रभात झा ने पार्टी के मुखपत्र ‘कमल संदेश’ के ताजा अंक में छपे अपने विशेष

संपादकीय को लेकर आज सफाई देते हुए कहा कि उनके आलेख का मकसद सियासत के मौजूदा दौर में

भाजपा संगठन को मजबूत बनाये रखने का संदेश देना है।

झा ने यहां संवाददाताओं से कहा, ‘मेरे संपादकीय के अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे हैं, लेकिन इसे लेकर

मेरा अर्थ यही है कि अनास्था के इस दौर में देश फिलहाल भाजपा की ओर उम्मीद की निगाहों से देख रहा

है। लिहाजा सभी भाजपा कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है कि वे खुद को मजबूत बनाये रखें।’

वरिष्ठ भाजपा नेता ने अपने आलेख की शुरुआत कर्नाटक, गुजरात और राजस्थान में पिछले दिनों

सामने आये घटनाक्रम का हवाला देते हुए की है, जहां पार्टी भीतरी खींचतान से जूझती दिखायी दी थी।

बहरहाल, ‘कमल संदेश’ के संपादक ने जोर देकर कहा कि उन्होंने पार्टी के मुखपत्र में ‘बडी जिम्मेदारी

से’ संपादकीय लिखा है और इस आलेख का मुंबई में 24 व 25 मई को संपन्न भाजपा की राष्ट्रीय

कार्यकारिणी की बैठक से कोई ताल्लुक नहीं है। झा ने पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को

भाजपा का ‘सर्वश्रेष्ठ’ नेता बताया, जिन्होंने हाल ही में अपने ब्लॉग में पार्टी को आत्मचिंतन की

सलाह दी है।

उन्होंने कहा, ‘आडवाणी हमारी पार्टी के सर्वश्रेष्ठ नेता हैं। उनकी अभिव्यक्ति और वाणी हमें

रास्ता दिखाती है। उन्होंने पार्टी को मजबूत बनाने के लिये अपने ब्लॉग में जो अपेक्षाएं जतायी हैं,

हम सब मिलकर उन्हें साकार करने की कोशिश करेंगे।’ झा ने इस बात को खारिज किया कि आडवाणी

ने अपने ब्लॉग के जरिये भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर अप्रत्यक्ष हमला किया है। उन्होंने

कहा, ‘आडवाणी सबको स्नेह देते हैं। वह किसी पर हमला नहीं करते।’

उधर, भाजपा में उभर रहे गतिरोध और मतभेदों के बीच गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज

यहां पार्टी के सबसे वरिष्ठ दो नेताओं अटल बिहारी वाजपेयी तथा लालकृष्ण आडवाणी से मुलाकात

की। पिछले कुछ साल से अस्वस्थ चल रहे वाजपेयी का जिक्र आज भी कई नेता पार्टी के भीतर अपनी

स्वीकार्यता बढाने के लिए करते हैं। अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार

के तौर पर तेजी से उभर रहे मोदी की वाजपेयी से मुलाकात को भी इसी तरह की एक कोशिश माना जा रहा

है। वाजपेयी की पुरानी तस्वीरों, भाषणों और कविताओं को वरिष्ठ भाजपा नेता अकसर इस्तेमाल करते हैं

क्योंकि पूर्व प्रधानमंत्री की लोकप्रियता भाजपा के भीतर और बाहर अभी भी बेजोड है।

सूत्रों के अनुसार मोदी ने वाजपेयी की सेहत का हालचाल जानने के लिए उनसे मुलाकात की और उनका

आशीर्वाद प्राप्त किया। अहमदाबाद लौटने से पहले मोदी ने आडवाणी से भी मुलाकात की। उनकी

मुलाकात ऐसे समय में हुई है जब आडवाणी ने अपने एक ब्लॉग में पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी पर

उनके कुछ फैसलों को लेकर अप्रत्यक्ष निशाना साधा है। गडकरी के साथ मोदी के संबंध भी बहुत मधुर

नहीं रहे हैं। आडवाणी गुजरात के गांधीनगर से लोकसभा सदस्य हैं। मोदी तथा आडवाणी के बीच भी कुछ

मुद्दों पर मतभेद रहे हैं लेकिन आडवाणी अलग अलग मौकों पर तथा अपने ब्लॉग एवं भाषणों में गुजरात

के मुख्यमंत्री की जमकर तारीफ भी करते रहे हैं।

रहस्यमयी बीमारी के इलाज हेतु यूएस जाएंगी राजमाता !

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली ! कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी को कौन सी बीमारी हुई है और वे किसकी

शल्य क्रिया कराकर लौटी हैं इस बारे में आज भी देश के किसी नागरिक को कुछ नहीं पता है, यहां तक कि

कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को भी इस बात की जानकारी नहीं है कि आखिर सोनिया का मर्ज क्या है। इस

माह एक बार फिर सोनिया अपने रूटीन चेकअप या आपरेशन के लिए विदेश जाने वाली हैं, उस वक्त राहुल

के हाथों में कमान सौंपकर एक प्रयोग किया जा सकता है।

ज्ञातव्य है कि पिछले साल दो अगस्त को कांग्रेस की राजमाता सोनिया गांधी दुनिया के चौधरी

अमरीका की शरण में गईं थीं। भारत गणराज्य में आयुर्विज्ञान, आयुर्वेद, यूनानी, होम्योपैथ आदि

मामलों में नित नए प्रयोग करने वाली कांग्रेस की अध्यक्षा को देश की चिकित्सा प्रणाली और

चिकित्सकों पर रत्ती भर विश्वास नहीं था तभी उन्होंने अपनी इस रहस्यमय बीमारी के लिए अमरिका

की उंगली थामी।

कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10, जनपथ (सोनिया गांधी को आवंटित सरकारी आवास)

के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि इस माह के मध्य में एक बार फिर सोनिया गांधी अमरीका जा रही

हैं। उनकी यह यात्रा कितनी लंबी होगी इस बारे में सूत्रों ने मौन साध रखा है, किन्तु सूत्रों ने इस बात के

संकेत अवश्य ही दिए हैं कि सोनिया की यात्रा उनके स्वास्थ्य कारणों से है और वे इस दरम्यान अपनी

शल्य क्रिया अथवा रूटीन चेकअप करवाएंगी।

सोनिया की इस रहस्यमय बीमारी के बारे में लगभग दस माह बीत जाने के बाद भी कांग्रेस की चुप्पी

आश्चर्यजनक ही मानी जा रही है। सोनिया की बीमारी के बारे में कयास लगाने वालों ने इसे कैंसर की

बीमारी निरूपित करने से भी गुरेज नहीं किया है। जेड़ प्लस सुरक्षा वाली सोनिया की सुरक्षा में लगा

एसपीजी का दस्ता भी अपना मुंह सिले हुए है। कांग्रेस और नेहरू गांधी परिवार पर लगातार वार करने वाले

सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भी यह पूछने की जहमत नहीं उठाई है कि सोनिया किस बीमारी के इलाज के लिए

विदेश गईं और उनकी यात्रा एवं उनके साथ गए सरकारी सुरक्षा दस्ते के देयकों का भोगमान किसने

भोगा?

उधर, सूत्रों ने यह भी कहा कि आदि अनादिकाल में चलने वाली सामंतशाही आज भी आजाद भारत

गणराज्य में बरकरार है। देश की सत्ता का हस्तांतरण सोनिया गांधी के हाथों से राहुल गांधी के हाथों में

धीरे धीरे होने लगा है। राहुल गांधी ने इस फेरबदल की प्रक्रिया को काफी पहले ही अंजाम दे दिया था। वे

देश भर का दौरा कर रहे हैं। देश भर में सांसद विधायकों से राहुल गांधी रूबरू हो रहे हैं।

कांग्रेस का एक बहुत बड़ा वर्ग चाह रहा है कि राहुल गांधी जल्द ही देश के प्रधानमंत्री बनें ताकि बदलाव

की बयार को महसूस किया जा सके, और पुराने पापों को धोकर खाता बही नए सिरे से तैयार हो सके। यह

बात आईने की तरह साफ है कि सत्ता की बागडोर संभालने का निर्णय राहुल और सोनिया का नितांत

निजी मामला है। राहुल अभी सत्ता संभालने के इच्छुक कतई नहीं नजर आ रहे हैं।

राहुल के बेहद करीबी एक नेता ने पहचान उजागर ना करने की शर्त पर कहा कि राहुल गांधी मूल रूप से

मनमोहन सिंह की कार्यप्रणाली से बेहद खफा हैं। राहुल के निशाने पर केंद्र सरकार के वे मंत्री हैं जिनके

नाम नीरा राडिया प्रकरण में उजागर हुए हैं। राहुल उस जहाज का कप्तान कतई नहीं बनना चाह रहे हैं

जिस जहाज में ज्यादातर मंत्रियों की आयु 66 पार हो चुकी है।

उन्होंने कहा कि सरकार की कमान संभालने के पूर्व राहुल चाहते हैं कि सरकार और पार्टी की छवि सुधरे।

इसके लिए वे लगातार प्रयासरत भी हैं। पिछले एक साल में राहुल के ट्यूटर राजा दिग्विजय सिंह के गलत

कदमों से राहुल गांधी को काफी नुकसान हुआ है, जिसके बारे में राहुल बेहद देरी से जागे।

कांग्रेस की कोर कमेटी से छन छन कर बाहर आ रही खबरों पर अगर यकीन किया जाए तो सोनिया के

विदेश जाने के पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी द्वारा अपने दुलारे पुत्र राहुल गांधी को

कांग्रेस की चाबी सौंप दी जाएगी। अपेक्षाकृत अधिक ताकतवर होकर राहुल कांग्रेस संगठन में चाबुक

चला सकते हैं जिसके प्रभाव बारिश में ही समझ में आने लगेंगे।

बेगुनाह, आजमगढ़ और सपा सरकार

  • अखिलेश भैया, जो ज़ख्म बहन जी की पुलिस ने दिए उन पर मरहम तो लगाओ !

  राजीव यादव

अबुल बशर

अबुल बशर

2008 के अगस्त महीने में आजमगढ़ के अबुल बशर की गिरफ्तारी और उसके बाद सपा के अबू आसिम आजमी और इमाम बुखारी की खरेवां मोड़ सरायमीर पर की गई आम सभा और उसके बाद बशर के घर पहंुच सान्त्वना देते हए इस जुल्म की खिलाफत करने के बयानों की याद दिलाते हुए मानवाधिकार नेता मसीहुद्दीन संजरी कहते हैं कि अब वक्त आ गया है कि सपा अपने दिए वादों को पूरा करे। तो वहीं बशर के भाई अबू जफर कहते हैं कि आखिर में जब भाई की गिरफ्तारी 14 अगस्त 2008 को हई थी जिसकी खबर 15 अगस्त 2008 के अखबारों में भी आई थी और फिर पुलिस ने उन्हें 16 अगस्त को लखनउ से गिरफ्तार करने का दावा किया था तो ऐसे में आज सपा सरकार अपने वादे को पूरा करे और मेरे भाई की गिरफ्तारी की जांच करवाए।
अगस्त 2008 में आजमगढ़ से अबुल बशर की गिरफ्तारी के बाद उनके पिता अबू बकर ने बताया था कि “परसों कुछ गुण्डा बशर के घरे से अगवा कइ लेनन तब हम पुलिस के इत्तेला कइली त पुलिस हम लोगन से कहलस की आपो लोग खोजिए अउर हमों लोग खोजत हई मिल जाए। पर काल उहय पुलिस साम के बेला आइके हमरे घरे में जबरदस्ती घुसके पूरे घर के तहस नहस कइ दिहिस। हमके धमकइबो किहिस कि तोहार बेटा आतंकवादी ह अउर तोहरे घरे में गोला-बारूद ह। तलासी के बाद पुलिस बसर के बीबी क गहना, गाँव वाले चंदा लगाके बसर के खोजे बिना पइसा देहे रहे उ अउर जात-जात चूहा मारे क दवइओ उठा ले गई। हमसे पुलिस वाले जबरदस्ती सादे कागद पर दस्खतो करइनन।’’ अबुल बशर की गिरफ्तारी के डेढ़ साल पहले उनके पिता को ब्रेन हैमे्रज हो गया था, एक बशर के सहारे पूरा घर था।
बीनापारा गांव के लोग बताते हैं कि पिता के ब्रेन हैम्रेज के बाद बशर पर ही घर की पूरी जिम्मेदारी आ गई थी। इसीलिए वह कमाने के लिए आजमगढ़ के ही अब्दुल अलीम इस्लाही के हैदराबाद स्थित मदरसे में पढ़ाने चला गया था। बशर जनवरी 08 में गया था और फरवरी 08 में वापस आ गया था क्योंकि वहाँ 1500 रू॰ मिलते थे जिससे उसका व उसके घर का गुजारा होना मुश्किल था। दूसरा पिता की देखरेख करने वाला भी घर में कोई बड़ा नहीं था। इस बीच वह गाँव के बेलाल, राजिक समेत कई बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता था। अबुल बशर के चाचा रईस बताते हैं कि 14 अगस्त 08 को 11 बजे के तकरीबन दो आदमी मोटर साइकिल से आए और बशर के भाई जफर की शादी की बात करने लगे। बशर ने घर में मेहमानों की सूचना देकर उनसे बात करने लगा। बात करते-करते वे बशर को घर से कुछ दूर सड़क की तरह ले गए जहाँ पहले से ही एक मारूती वैन खड़ी थी। मारूती वैन से 5-6 लोग निकले और बशर को अगवा कर लिया। अगवा करने वालों की स्कार्पियो, मारूती वैन और पैशन प्लस मोटर साइकिल पर कोई नम्बर प्लेट नहीं लगा था। इसकी सूचना हम लोगों ने थाना सरायमीर को लिखित दी। गांव वाले बताते हैं कि 13 मई 08 के जयपुर बम धमाके हों या 25-26 जुलाई 08 के हैरदाबाद और अहमदाबाद के बम धमाके, इस दौरान बशर गाँव में ही था और अपनी अपाहिज माँ और ब्रेन हैम्रेज से जूझ रहे पिता का इलाज करा रहा था।

अबुल बशर का परिवार

पूर्वी उत्तर प्रदेश का आजमगढ़ जिला अबुल बशर की गिरफ्तारी के बाद उस दरम्यान जहाँ एक बार फिर चर्चा में आया था तो वहीं एक बार फिर एसटीएफ, एटीएस और आईबी की गैरकानूनी आपराधिक व झूठी कार्यवाही के खिलाफ पूरा जिला आन्दोलित हो गया था। पिछले दिनों जिस तरह सपा सरकार ने यूपी की कचहरियों में हुए बम धमाकों के आरोप में आजमगढ़ जिले से उठाए गए तारिक कासमी की बेगुनाही पर रिहाई की मंशा जाहिर की ऐसे में अबुल बशर का प्रकरण भी काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। क्योंकि जिस तरह एसटीएफ ने आजमगढ़ जिले से 12 दिसम्बर 07 को उठाए गए तारिक कासमी को आजमगढ़ से अगवा कर 22 दिसम्बर 07 को बाराबंकी से गिरफ्तार दिखाया ठीक उसी तरह अबुल बशर को भी उसके गाँव बीनापारा, सरायमीर से 14 अगस्त 08 को साढ़े ग्यारह बजे अगवा कर 16 अगस्त 08 को लखनऊ चारबाग इलाके से गिरफ्तार करने का दावा किया गया था। 15 अगस्त को विभिन्न अखबारों में छपी खबरंे एसटीएफ और एटीएस की इस बहादुराना उपलब्धि’ को झूठा साबित करने के लिए काफी हंै। जिसमें पुलिस ने अहमदाबाद विस्फोटों में सिमी का हाथ होने का पुख्ता प्रमाण मिलने व मुफ्ती अबुल बशर को धमाकों का मास्टर माइंड बताते हुए सिमी का सक्रिय सदस्य बताया था।
ये बात और है कि आजमगढ़ खूफिया विभाग की सीक्रेट डायरी के अनुसार 2001 में सिमी पर प्रतिबंध के बाद उन्नीस लोगों की गिरफ्तारी के बाद अब तक किसी नए व्यक्ति का सिमी का सदस्य बनने का कोई जिक्र नहीं है।
सवाल यहां यह है कि जब तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद की इसी तरह की फर्जी गिरफ्तारी पर तत्कालीन मायावती सरकार ने आरडी निमेश जांच आयोग का गठन किया था तो सपा सरकार क्यों नहीं अबुल बशर की गिरफ्तारी पर न्यायिक जांच का गठन करती है। यह जांच इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि बशर की गिरफ्तारी को अहमदाबाद और यूपी एटीएस की संयुक्त गिरफ्तारी कहा गया था। ऐसे में यह जांच प्रदेश के उन आला पुलिस अधिकारियों की साम्प्रदायिक गठजोड़ को बेनकाब भी करेगी जो गुजरात की पुलिस के साथ उसका था। यहां बेगुनाहों को छोड़ने के साथ यह भी सवाल है कि अगर सपा सरकार मुसलामानों पर हुए जुल्मो के खिलाफ लड़ने की बात करती है तो उसे सूबे के ऐसे सांप्रदायिक प्रशासनिक अधिकारियों की शिनाख्त करनी होगी। जो जांच के बगैर संभव नहीं है। क्योंकि अबुल बशर को फसाए जाने में आईबी की भूमिका संदेह के घेरे में है।
क्योंकि अबुल बशर प्रकरण में जावेद नाम का एक व्यक्ति मार्च 08 से ही बशर के घर आता था जो कभी बशर से मिलता था तो कभी बशर के पिता अबु बकर से और खुद को कम्प्यूटर का व्यवसायी बताता था और वह बिना नम्बर प्लेट की गाड़ी से आता-जाता था। जावेद, बशर के भाई अबु जफर के बारे में पूछता था और कहता था कि जफर को कम्प्यूटर बेचना है। अबु बकर ने बताया है कि बशर को अगवा किए जाने के बाद जावेद 16 अगस्त 08 की शाम छापा मारने वाली पुलिस के साथ भी आया था। तो वहीं बांस की टोकरी बनाने वाले पड़ोसी कन्हैया बताते है कि 14 अगस्त को बशर को अगवा किया गया तो अगवा करने वालों में दो व्यक्ति जो सिल्वर रंग की पैशन प्लस से थे वे गाँव में महीनों से आया जाया करते थे और वे इस बीच बशर के बारे में पूछते थे। ऐसे में खूफिया विभाग संदेह के घेरे में आता है कि जब महीनों से वह बशर पर निगाह रखे था तो वह कैसे घटनाओं को अंजाम दे दिया? मडि़याहूँ जौनपुर से उठाये गए खालिद प्रकरण में भी आईबी ने इसी तरह छः महीने पहले से ही खालिद को चिन्हित किया था। आतंकवाद के नाम पर की जा रही गिरफ्तारियों में देखा गया है कि कुछ मुस्लिम युवकों को आईबी पहले से ही चिन्हित करती है और घटना के बाद किसी को किसी भी घटना का मास्टर माइंड कहना बस बाकी रहता है। ऐसे में देखा जा रहा है कि एसटीएफ और एटीएस की आपराधिक व गैरकानूनी कारगुजारियों का आईबी सुरक्षा कवच बन गई है।

राजीव कुमार यादव,

राजीव कुमार यादव, लेखक स्वतंत्र पत्रकार
एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।
लेखक राज्य प्रायोजित आतंकवाद के विशेषज्ञ हैं।

संस्कारों का ह्ास: गिरता जीवन मूल्य

(श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’)

भारतीय सभ्यता और संस्कृति अपने संस्कारांे के लिए पूरे विष्व में जानी जाती है। भारतीय संस्कारों का

ही परिणाम था कि एक समय भारत विष्व गुरू की पदवी धारण किए हुए था। यहॉं में लेखक होने के नाते यह

स्पष्ट कर देता हॅंू कि मेरा यहॉं संस्कारों से तात्पर्य सनातन धर्म के 16 संस्कारों से नहीं है वरन् दैनिक

आचरण व जीवनषैली से जुड़े उन संस्कारों से है जिनके चारों ओर हमारा जीवन जुड़ा हुआ है। हमारे देष की

संस्कृति बहुधर्मी है और यहॉं एक कहावत प्रचलित है कि कोस कोस पर पानी बदले चार कोस पर वाणी

परन्तु इसके बावजूद भी हम एक ऐसे सूत्र में पिरोए हुए हैं जो हम सबको भारतीय होने का गौरव प्रदान

करता है और यह सूत्र संस्कारों से पिरोया हुआ है।

हमारे यहॉं एक समय ऐसा था जब अपने से बड़ों का आदर करना, गुरूजनों का सम्मान करना, पड़ोैसी

पड़ोैसी में भाई भाई जैसा प्रेम, पूरे गॉव को एक ही परिवार के रूप में देखना आदि आदि ऐसी कईं दैनिक

आचरण की बातें थी जो हमें पूरी दुनिया से अलग करती थी। किसी के बीमार हो जाने पर पूरे मौहल्ले का

इकट्ठा हो जाना, मोैहल्ले या गॉंव में किसी की मृत्यु हो जाने पर पूरे गॉंव में शोक का माहौल हो जाता था

और किसी भी घर में खाना तक नहीं बनता था। इन सब उदाहरणों से मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हम

वसुधैव कुटुम्बकम् की जिस भावना की बात करते थे उस भावना के अनुसार अपना जीवन भी व्यतीत

करते थे। हमारी कथनी और करनी में भेद नहीं था।

पिछले कुछ समय पर गौर करें तो यह बात सामने आती है कि यह सब बातें अब बीते समय की हो गई है।

हम कहने को तो आज भी अपने आप को वैसा ही बताते हैं कि हम सब प्रेम से रहते हैं और हम मनुष्य

मनुष्य में भेद नहीं करते परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। आज के इस भागदौड़ के जीवन में लोगों को

अपने परिवार के लिए ही समय नहीं है और हालात ये है कि माता पिता अपने बच्चों से हफ्ते भर तक बात

तक नहीं कर पाते। संयुक्त परिवार की टूटती स्थिति ने एकल परिवार की जिस संस्कृति को जन्म दिया

है उससे संस्कारों का अवमूल्यन हुआ है। आज बच्चा साथ रहना नहीं सीखता तो वह कैसे अपने मौहल्ले

को परिवार के रूप में आत्मसात करेगा। एक तरफ जहॉं उसके स्वयं के परिवार में परिवार जैसा माहौल

नहीं है तो उससे कैसे उम्मीद की जाए कि वह पूरे शहर में परिवार के रूप मंे अपना सकेगा। आधुनिकता की

दौड़ में हमने अंकतालिकाएॅ ंतो अच्छी बना ली है और करोड़ों के सालाना पैकेज कैसे प्राप्त किए जाते हैं

यह तो सीख लिया है लेकिन भाई भाई बनकर कैसे रहा जाए यह भूल गए हैं, हम भूल गए हैं कि कैसे हम

अपने वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को जीकर लोगों के सामने आदर्ष प्रस्तुत करें, अतिथि देवो भव की

संस्कृति वाले इस देष में आज अतिथि के आने पर चेहरे पर सल उभर आते हैं और सोचते हैं कि अतिथि तुम

कब जाओगे। भाई भाई में प्रेम नहीं रहा, बुजुर्गों का सम्मान समाप्त हो गया और हालात ये हो गए कि

बुजुर्गों के सम्मान के लिए हमें कानून बनाने पड़े। जिस देष में श्रवण कुमार की कहानियॉं सुनाई जाती

थी वहीं आज मॉं बाप के रिष्तों को तार तार करती नुपुर तलवार की खबरें सुर्खियों में है। संस्कृति के इस

अवमूल्यन ने भारत की साख को हल्का कर दिया है। आज हमें किसी पर भी विष्वास नहीं रहा। भरोसे के

रिष्ते समाप्त हो गए हैं। हम डर के माहौल में जी रहे हैं। संस्कृति की जड़ों के हिलने से हमारे खुषियों और

परिवार व समाज की समृद्धि के फूल पनप नहीं रहे हैं। युवा पीढ़ी भटकाव के दौर में है। रेव पार्टियों में

खुले आम अष्लील व नषाखोरी की ताल पर नाचता युवा अपने पुरावैभव व पुरा संस्कृति से अपरिचित है।

मॉं बाप से जूठ बोलना, गुरूजनों का अपमान करना, पड़ौसी को पहचानना ही नहीं ओैर हर किसी ओर लोभ

लालच व अष्लील नजरों सेे देखने की प्रवृति ने हमारे अंदर के भारतीय गौरव को समाप्त कर दिया है।

आज जरूरत है अपने अतीत के गौरवषाली इतिहास से सांस्कृतिक वैभव को अपनाने की ओर हम एक

परिवार के रूप में रहना सीखे हम भाई भाई की तरह रहे लालच को त्याग दे और जब पूरी वसुधा की हमारा

घर हो जाएगी तो फिर क्या तेरा और क्या मेरा वहॉं तो सब सबका हो जाएगा। आओ हम सब मिलकर एक

ऐसे भारत के निर्माण का संकल्प ले जो पूरे विष्व के भाल पर तिलक की तरह चमके।

येदी के बहाने गड़करी पर वार

(आर.बी.सिंह)

बीजेपी आलाकमान को शायद इसी दिन का इंतज़ार था कि कर्नाटक के वरिष्ठ नेता वीएस येदियुरप्पा

बगावत का बिगुल फूंके। बीजेपीवालों को यह कहने का मौका मिल गया है कि इस तरह से तो पार्टी नहीं

चलती और इस बगावत की आड़ में एक बार फिर येद्दि को गद्दी से दूर रखा जाएगा। उनके बारे में कहा

जा रहा है उन पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच करके रिपोर्ट देने के लिए कहा है इसलिए गद्दी देना

मुमकिन नहीं है। अगर आरोप ही सबकुछ हैं तो फिर पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के ऊपर भी एक

गंभीर आरोप है। एक सात साल की बच्ची उनकी कार से मृत पाई गई थी। वे आरोप अभी भी गड़करी और

उनके परिजनों पर लगे हुए हैं। तो क्या गडकरी को भी गद्दी छोड़ देनी चाहिए? नैतिकता का तकाजा तो

यही है कि अगर आरोपमुक्त होने तक येदियुरप्पा को गद्दी से दूर रखा जा रहा है तो गड़करी को भी गद्दी

छोड़ देनी चाहिए।

बीजेपी के इतिहास में शायद पहली बार है कि जब केंद्रीय नेतृत्व क्षेत्रीय सूरमाओं के सामने इतना लचर

और पस्त दिखाई देता है। पार्टी अभी भी गल्तियों से सबक सीखने को तैयार नहीं है, इसके उलट बीजेपी

नेता इस गुमान और अहंकार में चूर हैं कि जिसे पार्टी के खिलाफ जितना मोर्चा खोलना हो खोल ले, हश्र

सभी का एक दिन बलराज मधोक, वाघेला, उमा-गोविंद और कल्याण सिंह जैसा ही होगा। यानी अपने

पुरुषार्थ का भरोसा छोड़, उस कहानी और किंवदंती के प्रचार और प्रसार में बीजेपी आलाकमान जुटे हैं

जो संयोग से कुछ मामलों में सच साबित भी हुई है। लेकिन जो पहले होता रहा, आगे भी होगा, कौन गारंटी

लेगा? झारखंड में बाबू लाल मरांडी की लगातार बढ़ती हैसियत क्या बीजेपी के नेता महसूस नहीं कर पा

रहे। आखिर बीजेपी पुरानी कहानी को लेकर गफलत में क्यों है? अटल बिहारी वाजपेयी जैसा कद्दावर और

उदार नज़रिए का नेता अब बीजेपी के पास नहीं है, जिसे जन्म कुंडली में ही ‘शत्रुहंता’ का अमोघ दैवीय

राजनीतिक सुरक्षा कवच हासिल था। मतलब अटल बिहारी के खिलाफ जिसने भी उंगली उठाई, बीजेपी

में कम से कम उस नेता का तो सफाया हो ही गया। वाजपेयी को कुछ करना नहीं पड़ा, सब कुदरत ने अपने

आप ही किया।

मुद्दा येदियुरप्पा का है। बीजेपी आलाकमान के पास तर्क है कि येदियुरप्पा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट

ने सीबीआई जांच के आदेश दे रखे हैं लिहाज़ा उन्हें कर्नाटक की गद्दी नहीं सौंपी जा सकती। वही

आलाकमान जिसने वायदा किया था कि येदियुरप्पा अदालत से अगर बरी हुए तो उन्हें फौरन कर्नाटक की

कुर्सी सौंप दी जाएगी, लेकिन सच ये है कि आलाकमान अपना वादा निभाने में नाकाम रहा। येदियुरप्पा

को लोकायुक्त केस में कर्नाटक हाईकोर्ट ने बाइज्ज़त बरी किया था। अदालत का फैसला मार्च 2012 के

पहले हफ्ते में ही आ गया लेकिन बीजेपी आलाकमान किसी ना किसी बहाने सत्ता हस्तांतरण का मौका

टालता रहा। क्यों? येदियुरप्पा के मुताबिक, पार्टी महासचिव अनंत कुमार पार्टी आलाकमान का कान

भरते हैं लिहाज़ा आलाकमान आजतक फैसला नहीं ले सका। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई 2012 को

येदियुरप्पा के खिलाफ सीबीआई जांच के आदेश दिए, तो येदियुरप्पा विरोधियों को उनकी खिलाफत का

अचूक हथियार मिल गया, लेकिन क्या सिर्फ जांच के आदेश से येदियुरप्पा सत्ता पाने से वंचित किए

जाने चाहिए। क्या मोदी के खिलाफ जांच के आदेश नहीं थे? क्या गडकरी के खिलाफ जांच के आदेश नहीं

हैं?

कर्नाटक में कमल खिलाने में येदियुरप्पा की भूमिका क्या रही, किसी से नहीं छुपी है। बीते 4 दशकों से

कर्नाटक में उच्च मध्य वर्ग तक सीमित बीजेपी कर्नाटक में पिछड़े-किसानों तक अपनी बात पहुंचा

सकी तो इसके पीछे येदियुरप्पा की मेहनत कम नहीं। हालांकि कर्नाटक में आरएसएस का काम भी

ज़मीनी स्तर पर बेहद मज़बूत माना जाता है लेकिन राजनीतिक दंद-फंद में उसका प्रयोग तभी सफल

हुआ जब उसने कर्नाटक के मज़बूत लिंगायत समुदाय में अच्छी पकड़ रखने वाले येदियुरप्पा का चेहरा

आगे किया। वही येदियुरप्पा आज बीजेपी को न उगलते बन रहे हैं न निगलते। बीजेपी तय नहीं कर पा रही

है कि आखिर येदियुरप्पा को मनाए तो कैसे? गौड़ा कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं है, पीछे से अनंत कुमार

ने अड़ंगी लगा रखी है, तीसरे येदि के खिलाफ घोटालों का पुलिंदा खड़ा कर दिया गया है, ऐसे में बीजेपी

आलाकमान की डगर फैसले को लेकर मुश्किल हो गई है। नतीजे तक पहुंचने के लिए जानकार बीजेपी को

आईना देखने की सलाह दे रहे हैं।

दरअसल, आरोपों का सिलसिला राजनीति में हर नेता के ऊपर चस्पा है। अगर मुद्दा येदियुरप्पा के

खिलाफ सीबीआई जांच है तो क्या ये सच नहीं है कि पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी खुद मर्डर के एक

मामले में सीआईडी जांच के दायरे में आ चुके हैं। आखिर उन्हें बगैर आरोपों से बरी हुए बीजेपी के अध्यक्ष

पद पर बने रहने का क्या हक है? कोई कहेगा कि आरोप में सच्चाई नहीं तो इसके खिलाफ हाईकोर्ट की

नागपुर बेंच का आदेश दिखाया जा सकता है। पूरा मामला साल 2009 का है। गडकरी के घर के हाते में

उनकी कार में एक 7 साल की बच्ची योगिता ठाकरे की लाश 19 मई, 2009 की शाम को मिली। लाश जिस

वक्त मिली, उस वक्त हाते के गेट पर गडकरी के सुरक्षाकर्मी दो पुलिस कांस्टेबल मौजूद थे। घर में

गडकरी के छोटे पुत्र निखिल गडकरी के मौजूद होने की बात भी बताई गई है।

सात साल की बच्ची की लाश संदिग्ध हालत में गडकरी की कार होंडा सीआरवी एमएच 31 डीबी 2727 में

पाई गई। उसकी पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट के मुताबिक, उसके गुप्तांग पर घाव पाया गया, बच्ची की चड्ढी

पर खून लगा मिला, उसकी दाहिनी जांघ पर भी खून लगा पाया गया। जिस वक्त बच्ची की मां विमल

ठाकरे, निवासिनी-टीकरवाड़ी, दुसरा रोड, महाल, नागपुर बच्ची को खोजते हुए गडकरीवाड़े में दाखिल हुई

तो गडकरी के सेक्रेट्री सुधीर देवूलगांवकर और पुलिस वालों का रवैया ही पूरे मामले पर शक की तलवार

लटका देता है। बच्ची की मां का कहना है कि उसे फौरन लाश लेकर हाते से चले जाने को कहा गया। आनन-

फानन में जिस कार में लाश मिली, उस कार को कहीं और भेज दिया गया। आरोप है कि पुलिस ने बाद में

जांच के दौरान लाश की बरामदगी एक दूसरी कार, जो गडकरी के पूर्ति उद्योग के एमडी के नाम थी, उससे

दिखा दी। असल कार जो लाश मिलने के बाद फौरन घर से हटाई गई, उसका हुलिया रातों रात बदला गया

क्योंकि कार गडकरी के नाम थी। बच्ची के मां के मुताबिक, अगले दिन कार के अंदर से सीट कवर और वो

तमाम चीजें नदारद थीं जिन पर बच्ची की लाश मिली थी और जिन पर कथित हत्या और रेप की कोशिश

के अहम सुबूत मिल सकते थे।

खैर, राजनीतिक रसूख की बदौलत गडकरी खुद के परिजनों को हत्या के आरोप से पुलिस जांच में तो

बचा ले गए लेकिन अदालत भी तो कोई चीज है। नागपुर कोतवाली पुलिस ने जांच की खानापूर्ति भर की,

5 मार्च 2011 को मामला सीआडी के पास गया तो उसने भी वही रवैया अपनाया, लिहाज़ा थक-हारकर

योगिता के माता-पिता ने सीबीआई जांच के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। जनवरी 2012 में

हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने मामले की नए सिरे से जांच के आदेश दिए हैं। हाईकोर्ट ने कोतवाली पुलिस

को गैर जिम्मेदाराना जांच के लिए कड़ी फटकार भी लगाई। बच्ची के माता-पिता का आरोप है कि गडकरी

अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल कर जांच को हमेशा से प्रभावित करते रहे हैं।

लिहाज़ा, कई अहम सवाल पैदा होते हैं कि क्या गडकरी को आरोपों से बरी हुए बगैर क्या किसी राजनीतिक

पद पर बने रहने का नैतिक हक़ है? आखिर बच्ची उनके घर के अहाते में कैसे मरी? क्या महज़ दुर्घटना

थी? तो क्या पोस्ट मार्टम रिपोर्ट गलत है जिसमें उसकी योनि पर घाव है, पैंटी खून से सनी है? क्या

उसकी मां का ये दावा गलत है कि बच्ची के साथ रेप की कोशिश हुई? क्या मामले में गडकरी आरोपी नहीं

हैं? क्या वारदात उनके अहाते में नहीं हुई? जिस कार से बच्ची की लाश मिली वो कार गडकरी के नाम है

या नहीं? कार फौरन घर से क्यों हटाई गई? बच्ची अगर गलती से कार में लॉक हुई तो जिम्मेदारी किसकी

थी? क्या किसी ने भी उसे कार में बंद होते नहीं देखा? 7 साल की बच्ची की मौत बंद कार में दम घुटने से हुई

तो उसके शरीर पर खून कहां से आया, वो भी उसके अंतःवस्त्रों पर? क्या इस बात में सच्चाई नहीं है कि

महाराष्ट्र के गृहमंत्री जयंत पाटिल के जरिए सीआईडी और स्थानीय पुलिस पर मामले में दबाव बनाया

गया। आगे भी लीपापोती जारी रहे इसके लिए एनसीपी से जुड़े कई पैसे वाले नेताओं नीतेश बनगादिया और

प्रवीण पोटे को हाल ही में हुए विधान परिषद चुनाव में बीजेपी के समर्थन का रास्ता साफ किया। दोनों न

सिर्फ पैसे वाले हैं बल्कि माफिया भी हैं। पूरा मामला टीवी चौनलों की सुर्खियां न बनें लिहाज़ा गडकरी ने

चौनलों के साथ जमकर पीआर सेटिंग की।

दरअसल, ये कुछ ऐसे गंभीर सवाल हैं, जो सीधे तौर पर गडकरी और उनके परिवार की भूमिका पर सवाल

उठाते हैं। जिस महिला की बच्ची की संदिग्ध हालत में मौत हुई वो 2000 रुपये कमाने वाली एक मामूली

नौकरानी है लिहाज़ा उसके हितों का ख्याल किसी को नहीं आया। अगर बच्ची की मां दो हजार की बजाए दो

लाख रुपये महीने कमा रही होती, उसका राजनीतिक रसूख रहता तो क्या गडकरी उसकी ममता को पुलिस

से अदालत तक ठोकर मारने में कामयाब हो पाते? कोढ़ में खाज़ ये कि महिला उसी महाल मोहल्ले की रहने

वाली है जहां आरएसएस का मुख्यालय भी है, लेकिन क्या आरएसएस नेताओं को भी गरीब की आह सुनाई

नहीं देती। क्या आरएसएस पर भी गडकरी की अकूत दौलत का रंग चढ़ गया है?

कब तक वो छूट जाएंगे?

राजीव कुमार यादव

पिछले कई सालों से गुलाम कादिर वानी से हो रही मुलाकातों में रिफत को जाना। और अब यूपी की सरकार को भी उसे जानना चाहिए। रिफत सज्जादुर्रहमान की मंगेतर है। पिछले चार सालों से वह सज्जाद का इन्तजार दूर किश्तवाड़ जम्मू-कश्मीर में कर रही है। अक्टूबर 2007 में उसकी सगाई सज्जादुर्रहमान से हुयी थी और दिसम्बर में सज्जाद को यूपी की कचहरियों में हुए धमाकों के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। रिफत से यह पूछने पर कि क्या इस बीच रिश्ते आए या फिर कही और निकाह करने के लिए लोगों ने कहा तो रिफत कुछ पलों के लिए ठहर कर बोली कि बहुत रिश्ते आए पर मैंने मना कर दिया।
सज्जादुर्रहमान देवबन्द में पढ़ाई कर रहा था। 2007 के दिसम्बर में वह बकरीद की छुट्टियों में घर गया था। उसके पिता गुलाम कादिर वानी बताते हैं कि 20 दिसम्बर 2007 को स्थानीय पुलिस ने बेटे को उठा लिया था। पुलिस ने उसकी गिरफ्तारी मो. अख्तर वानी के साथ 27 दिसम्बर 2007 को दिखाई थी।
अख्तर के पिता मो0 साबिर का चेहरा आज भी मुझे याद है। बेटे की गिरफ्तारी के सिलसिले में चार साल पहले वो लखनऊ आए थे तो हमने जब उनसे कहा कि वो अपनी जर्सी उतार दें तो उन्होंने इस बात पर बिना कोई जवाब देते हुए अपने वकील मो0 शुएब की तरफ इशारा करते हुए कहा कि मैं बहुत गरीब हूँ और मेरा यहां ‘पंजाब’ आना बहुत नहीं हो पाएगा। आप लोग मेरे बेटे को बचा लीजिए मेरा बेटा बेगुनाह है। हमने जब उनसे कहा कि यह पंजाब नहीं यूपी है तो उन्होंने इसे मानने से इन्कार कर दिया। फिर उनसे कभी मुलाकात नहीं हो पाई। बाद में सज्जादुर्रहमान के पिता गुलाम कादिर वानी ने बताया कि बेटे के गम में दिल की बीमारी ने उन्हें ले लिया।
मो0 साबिर बेटे के उस पुलिस रिकार्ड को निकलवाना चाहते थे जिसमें उसने 16 नवम्बर 2007 को एक वाहन दुर्घटना की थी और 24 नवम्बर तक पुलिस की हिरासत में था। जबकि पुलिस उसे 23 नवम्बर 2007 के कचहरी धमाकों में आरोपी बता रही है। पर अफसोस वो नहीं रहे।
पुलिस के अनुसार सज्जादुर्रहमान ने ही लखनऊ की कचहरी में विस्फोटकों से भरा बैग रखा था। पुलिस ने सज्जादुर्रहमान के खिलाफ देशद्रोह, षड्यंत्र रचने, हत्या का प्रयास करने और विस्फोट अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया था। लेकिन पुलिस के सामने दिये गए बयान के अलावा उसके खिलाफ कोई सुबूत नहीं था। जिसके चलते आरोपियों के वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता एडवोकेट मो. शुएब ने कोर्ट में डिसचार्ज की याचिका दायर की। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने 14 अप्रैल को सज्जादुर्रहमान को लखनऊ की कचहरी में हुए विस्फोट के मामले से बरी कर दिया। यहां यह सवाल उठाना लाजिमी है कि जिन आरोपों में सज्जादुर्रहमान ने चार साल का समय जेल में गुजारे उसका दोषी कौन है?

गुलाम कादिर

सज्जादुर्रहमान के पिता गुलाम कादीर वानी इस फैसले को खुद की नेमत मानते हैं। किश्तवाड़ में एक छोटे से किसान गुलाम कादीर की आर्थिक हैसियत गंवारा नहीं करती की वह लखनऊ जेल में बंद अपने बेटे से समय-समय पर मिल सके। सज्जाद की गिरफ्तारी के बाद गुलाम कादीर के पास वकील करने के लिए भी पैसे नहीं थे। गुलाम कहते हैं कि ‘‘शुक्र है कि मो. शुएब ने उनके बेटे का पूरा केस बिना किसी फीस के लड़ा। और भी इंसाफपसंद लोग हमारे साथ थे, तभी हमें इंसाफ मिल सका।’’ इतना सब कुछ होने के बाद भी गुलाम को न्याय प्रक्रिया पर पूरा भरोसा हैं। वह कहते हैं ‘‘पुलिस ने जिस तरह से उसे उठाया था, और आरोप लगाए हमें नहीं लगा कि वह छूट पाएगा। लेकिन अल्लाह ने हमारी सुन ली। हमें भरोसा ही कि सज्जाद फैजाबाद कचहरी विस्फोट के आरोप से भी बरी होगा।
रिफत फातिमा की तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। रिफत से पूछने पर कि क्या वो कभी सज्जाद से मिलने यूपी आयीं उनका जवाब था नहीं बहुत दूर है न। सवाल के अन्दाज में उन्होंने कहा कि वहां बहुत गर्मी पड़ती है न? कब तक वो छूट जाएंगे?
उनका सवाल और दर्द लाजिमी है। आतंकवाद के नाम पर जेलों में बंद इन लड़कों को हाई सिक्योरिटी के नाम पर 23-23 घंटे जेलों में बंद रखा जाता है। गर्मियों में जेल के कमरे प्रेशर  कूकर की तरह हो जाते हैं।
23 नवम्बर, 2007 में उत्तर प्रदेश की लखनऊ, फैजाबाद और बनारस की कचहरियों में विस्फोट हुए थे। इस मामले में पुलिस ने पांच मुस्लिम युवकों को अलग-अलग जगहों से उठाया। इसमें आजमगढ़ के सम्मोपुर गांव के तारिक कासमी, जौनपुर के मडियाहू से मो. खालिद मुजाहिद, पं बंगाल से आफताब आलम और जम्मू-कश्मीर के किस्तवाड़ा जिले के मो. अख्तर वानी और सज्जादुर्ररहमान शामिल थे। जन दबावों के चलते ही तत्कालीन मायावती सरकार को खालिद मुजाहिद और तारिक कासमी की गिरफ्तारियों की जांच के लिए जस्टिस निमेष की अध्यक्षता में जांच कमेटी गठित करना पड़ा। और अब सपा सरकार उन्हें छोड़ने की बात कह रही है। इसलिए इन दोनों कश्मीरी लड़कों का सवाल भी प्रमुख हो जाता है। क्योंकि ये दोनों भी इन्हीं केसों में जेल में हैं।
कचहरियों में हुए विस्फोटों का कथित ‘मास्टर माइंड’ आफताब आलम पहले ही बरी हो चुका है। दिसम्बर 2007 में जिस आफताब आलम उर्फ राजू उर्फ मुख्तार को हूजी का आतंकी बताते हुए पं बंगाल से गिरफ्तार किया था, उसे एक महीने से कम समय में ही कोर्ट ने बाइज्जत बरी कर दिया। तब आफताब के पास से आरडीएक्स, हथियार के अलावा बड़ी मात्रा में बैंक बैलेंस भी दिखाया गया था। बाद में मानवाधिकार संगठनों की सक्रियता के चलते मात्र 22 दिन बाद ही एसटीएफ ने कोर्ट में नाम में गलतफहमी होने का तर्क देते हुए माफी मांग ली थी।
कचहरियों में विस्फोटों पर पुलिस की कहानी पर पहले से ही सवाल उठते रहे हैं। पुलिस ने इन विस्फोटों में हूजी और अन्य इस्लामिक आतंकी संगठनों का हाथ बताया था। गिरफ्तार आरोपियों को भी इन्हीं संगठनों का आतंकी बताया गया था। जबकि कई लोगों का मानना है कि इन विस्फोटों में हिंदुत्ववादी संगठनों का हाथ रहा है। फैजाबाद की कचहरी में शेड नम्बर 4 और शेड नम्बर 20 के नीचे रखे गए विस्फोटकों में धमाके हुए जो भाजपा के जिला पदाधिकारी विश्वनाथ सिंह और महेश पाण्डे की थीं और ये दोनों ही उस समय वहां से गायब थे। पुलिस ने इन दोनों से कभी भी पूछताछ की जरुरत महसूस नहीं की। 25 दिसम्बर 2007 को उत्तर प्रदेश के एडीजी बृजलाल ने प्रेस कॉफ्रेंस कर इन विस्फोटों के तकनीक की तुलना हैदराबाद की मक्का मस्जिद में हुए विस्फोटों से की थी। असीमानंद की स्वीकृतियों और राष्ट्रीय जांच एजेंसी की तहकीकात में मक्का मस्जिद विस्फोट में हिंदुत्ववादी संगठनों की संलिप्तता उजागर हुई है। अगर बृजलाल की इन बातों को सही माना जाए तो कचहरी विस्फोटों में भी हिंदुत्ववादी संगठनों का ही हाथ है।

राजीव कुमार यादव,

राजीव कुमार यादव, लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। लेखक राज्य प्रायोजित आतंकवाद के विशेषज्ञ हैं।

माननीय उच्चतम न्यायालय का निर्णय मजहबी सिद्धांत को मान्यता

(राजीव खण्डेलवाल)

माननीय उच्चतम न्यायालय ने हाल में ही दिये गये निर्णय में केंद्रीय सरकार द्वारा हज यात्रा व्यय के सम्बंध में दी जा रही सबसिडी को गलत ठहराया है। माननीय न्यायालय ने अगले दस वर्षो में इस सबसिडी को क्रमबद्ध रूप से समाप्त करने के निर्देश भी दिये है। उक्त निर्णय के पूर्व में शाहबानों प्रकरण में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अन्तर्गत गुजारा भत्ता देने के निर्णय की याद ताजा हो जाती है।

अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में पदोन्नति के मामले में उच्चतम न्यायालय का एक और महत्वपूर्ण निर्णय आया है जिसमें माननीय न्यायालय ने नियम 8 ए को निरस्त करते हुए पदोन्नति में आरक्षण के प्रावधान लागू नहीं होंगे यह निर्णित किया है। उक्त तीनों निर्णय लैण्डमार्क निर्णय है जो कमोबेस धार्मिक भावना व आरक्षण से सम्बंधित है जो देश की राजनीति में हलचल पैदा करने के लिए पर्याप्त है। लेकिन सबसे आश्चर्यजनक तथ्य जो आम नागरिक महसूस कर रहे है वह यह कि माननीय उच्चतम न्यायालय के हज यात्रा के निर्णय को आम मुस्लिमों एवं नेताओं ने स्वीकार किया है।

इसके विपरीत शाहबानों प्रकरण में मुस्लिम नेताओं के विरोध के फलस्वरूप तुष्टीकरण की नीति के तहत उक्त निर्णय को शून्य करने के लिए संविधान संशोधन विधेयक संसद में पारित किया गया था। तत्कालीन केन्द्रीय राजीव गांधी की सरकार ने तब यह संशोधन तथाकथित धर्म निरपेक्षता के नाम पर किया गया था।

लेकिन यह मानना कि माननीय उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय को मुस्लिम जनता ने अपने धार्मिक अधिकार पर अतिक्रमण नहीं माना जैसा कि शाहबानों प्रकरण में माना गया था तो उसका कारण यह है कि पवित्र ग्रंथ कुरान शरीफ में इस बात का उल्लेख है कि हज वही व्यक्ति जा सकता है जो सक्षम हो, जो स्वयं हजयात्रा का खर्चा उठा सकता हो।

माननीय उच्चतम न्यायालय नें कुरान शरीफ की व्याख्या करने वाले ‘‘नबी की हदीस’’ को मान्यता दी (निर्णय के जो अंश मीडिया में प्रकाशित हुए है उससे ऐसा प्रतीत होता है पूरा निर्णय अभी तक उपलब्ध नहीं हो पाया है) इसलिए उक्त निर्णय का स्वागत किया गया।

लेकिन एक बार हज सब्सिडी को गलत ठहराने के बाद उसे तुरंत लागू करने के बजाय 10 वर्ष में क्रमशः समाप्त करने के आदेश का औचित्य समझ से परे है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने हज यात्रा को अपने उक्त आदेश में इस आधार पर गलत नहीं ठहराया कि इससे असमानता व भेदभाव की स्थिति उत्पन्न होती है।

सरकार एक तरफ एक धर्म विशेष की धार्मिक हज यात्रा को तो सब्सिडी उनकी धार्मिक भावना के विरूद्ध होने के बावजूद दे रही है। लेकिन अन्य धर्मो की यात्राओं पर कोई सुविधाएं या सब्सिडी मांगे जाने पर भी नहीं दी जा रही है। यह भारतीय संविधान में दी गई समानता के अधिकार का उल्लंघन है।

भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जो हज यात्रा में सरकारी सहायता के रूप में सब्सिडी दे रहा है। जबकि कोई भी मुस्लिम राष्ट्र या अन्य राष्ट्र अपने नागरिको को यह रियायत या अन्य किसी प्रकार की रियायत नहीं देता है। माननीय उच्चतम न्यायालय को उक्त मामले में इस बिन्दु पर भी विचार करना चाहिए था ताकि भविष्य में कोई भी सरकार धर्मावलंबियो के तुष्टीकरण के उद्देश्य मात्र से इस तरह की भेदभाव की व्यवस्था न कर सके।

वर्तमान में देश का जो राजनैतिक दृश्य पटल है उसे देखते हुए क्या भविष्य में संविधान संशोधन विधेयक माननीय उच्चतम न्यायालय के उक्त दोनो निर्णयों को शून्य करने के लिए संसद में नहीं आयेगा यह चिंता करना क्या जल्दबाजी होगी? इसका उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में है, जिसका इंतजार करना होगा।

 

(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

. . . और सचिन हो गए कांग्रेस के ब्रांड एम्बेसेडर

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली । देश भर में कांग्रेस के गिरते जनाधार से अब लगने लगा है कि कांग्रेस

के युवराज राहुल गांधी की ताजपोशी की राह शूल ही शूल भरी है। कांग्रेस के आला नेता अब

राहुल गांधी के लिए टोने टोटकों का सहारा लिया जाने लगा है। घपले घोटालों और भ्रष्टाचार में

आकण्ठ डूबी कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के कारनामों की ओर से ध्यान हटाने के लिए अब देश

के क्रिकेट जगत के कथित भगवान सचिन तेंदुलकर को कांग्रेस का ब्राण्ड एम्बेसेडर बनाने की

चाल चली जा रही है।

सचिन तेंदुलकर का नाम राज्य सभा के लिए उछलने के बाद सियासी गलियारों में बहस तेज हो

गई है। कहा जा रहा है कि पेप्सी कोला जैसे विदेशी ब्राण्ड्स को हिन्दुस्तान में प्रमोट करने

के विज्ञापन करने वाले सचिन ने कभी भी स्वदेशी के लिए प्रमोशनल काम नहीं किया है।

अब इटली मूल की श्रीमति सोनिया गांधी के चरण धोकर वे अपने आप को कांग्रेसी बना रहे हैं,

जिससे उनके प्रशंसकों में मायूसी छाने लगी है।

भारतीय क्रिकेट के धुरंधर खिलाड़ी सचिन तेन्दुलकर को सरकार ने राज्यसभा के लिए मनोनीत

करने का निश्चय किया है। एक विशेष प्रावधान के तहत गैर राजनीतिक क्षेत्र से सरकार

राज्यसभा के लिए 12 लोगों का मनोनयन कर सकती है। इसी प्रावधान के तहत सरकार ने

सचिन तेन्दुलकर सहित अभिनेत्री रेखा को राज्यसभा भेजने की बात सामने आई है। दो अन्य

नामों का खुलासा अभी नहीं किया गया है।

उधर, कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10, जनपथ के सूत्रों ने बताया कि गुरुवार

को दिन में सचिन तेंदुलकर ने अपनी पत्नी अंजलि के साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से

उनके आवास पर मुलाकात की थी। सूत्रों ने बताया कि क्रिकेट की दुनिया में बुलंदियां छू चुके 39

वर्षीय तेंदुलकर और हिन्दी सिनेमा की 80 के दशक की मशहूर अभिनेत्री रेखा संविधान के एक

प्रावधान के तहत संसद के उच्च सदन की सदस्यता हासिल करेंगे।

मनमोहन सरकार द्वारा तेन्दुलकर का नाम घोषित करने से ज्यादा चौंकानेवाला नाम अभिनेत्री

रेखा का है। गुजरे जमाने की सदाबहार अभिनेत्री और सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के

साथ लंबे समय तक चर्चाओं में रही रेखा के राज्यसभा पहुंचने से कम से कम अमिताभ बच्चन के

लिए बहुत सुखद संयोग होगा जब उनकी पूर्व प्रेमिका और वर्तमान पत्नी दोनों राज्यसभा में

नजर आयेंगी. अमिताभ बच्चन की पत्नी जया बच्चन को समाजवादी पार्टी ने अपने टिकट पर

राज्यसभा पहुंचाया है।

उल्लेखनीय होगा कि सचिन को भारत रत्न देने की मांग जोर शोर से उठ रही थी। भाजपा नेता

गोपीनाथ मुण्डे का कहना है कि कांग्रेस या सरकार को अगर सचिन का सम्मान ही करना था तो

उन्हें राज्यसभा सीट देने के बजाय ‘भारत रत्न‘ दिया जाना चाहिए था।

शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत ने इस मामले में कांग्रेस को आड़े हाथों लिया है। उन्होंने कहा

कि विश्व कप दिलाने वाले कप्तान कपिल देव या लिटिल मास्टर सुनील गावस्कर जो सन्यास

ले चुके हैं को राज्य सभा से भेजा जाना चाहिए था, पर चतुर सुजान कांग्रेस के नेताओं ने अब भी

क्रिकेट खेल रहे सचिन का चुनाव किया।

कांग्रेस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने नाम उजागर ना करने की शर्त पर कहा कि यह सब कुछ

सोनिया गांधी के राजनैतिक सचिव अहमद पटेल का रचा खेल है। जैसे ही राजा दिग्विजय सिंह

को राहुल गांधी के पास से हटाया गया और अहमद पटेल को तवज्जो मिलना आरंभ हुआ अहमद

पटेल ने अपने आप को साबित करना आरंभ कर दिया है।

उक्त पदाधिकारी ने कहा कि अहमद पटेल ने अब राहुल गांधी को सियासी हल्कों में स्थापित

करने के लिए सचिव तेंदुलकर को आगे किया है और समाजवादी पार्टी को झटका देने के लिए

उन्होंने रेखा का नाम आगे बढ़ाया है। गौरतलब है कि एक जमाने में अमिताभ रेखा और अमिताभ

कांग्रेस (राजीव गांधी) की जुगल जोड़ी बेहद मशहूर थी। अब यह गुजरे जमाने की बात हो चुकी है।

अब रेखा और अमिताभ तथा अमिताभ और कांग्रेस एक दूसरे के बारे में ना तो कुछ बोलते हैं और

ना ही बोलने के इच्छुक दिखते हैं।

गौरतलब है कि पहले भी लोगों को लुभाने के लिए कांग्रेस भाजपा द्वारा रूपहले पर्दे के सितारों

को सीढ़ी बनाकर सत्ता की मलाई चखी है। पिछले दिनों एक केंद्रीय मंत्री की जमानत पर

गोविंदा राजनीति में आए पर बाद में उन्हें अन्य सितारों के मानिंद राजनीति रास नहीं आई।

कीर्ति आजाद के बाद अब सचिन पर दांव खेलकर कांग्रेस द्वारा राहुल गांधी को महिमा मण्डित

करने का प्रयास कियाजा रहा है जिसकी अच्छी प्रतिक्रिया दिखाई नहीं दे रही है।

उधर सरकारी सूत्रों ने बताया कि राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटील ने जाने-माने क्रिकेट

खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर, प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री रेखा और अनुआगा को राज्यसभा

मे मनोनीत करने को मंजूरी दे दी है। प्रधानमंत्री ने कल गृह मंत्रालय को इस बारे में एक

विज्ञप्ति भेजी थी जिसे अधिसूचना के लिए राष्ट्रपति को भेज दिया गया।

बताया जाता है कि जैसे ही सचिन की राज्य सभा सदस्य बनने की बात फिजां में तैरी वैसे ही

सोेशल नेटवर्किंग वेब साईट्स पर से भारी मात्रा में उनके फालोअर्स ने सचिन को अनफालो

करना आरंभ कर दिया है। चर्चा तो यहां तक भी है कि कांग्रेस की नकारात्मक छवि के चलते

कहीं सचिन को इसका खामियाजा ना उठाना पड़ जाए।