टाईम मेग्ज़ीन में छपी खबर को प्रायोजित मान रहे मनमोहन

लिमटी खरे

नई दिल्ली ।  ढाई करोड़ पाठक संख्या के साथ विश्व की सबसे अधिक प्रसारित टाईम मेग्जीन

में भारत गणराज्य के वज़ीरे आज़म डॉ.मनमोहन सिंह को अंडर एचीवर बताने से नया विवाद अवश्य ही

खड़ा हो गया है, इसके साथ ही साथ प्रधानमंत्री कार्यालय अब केंद्रीय मंत्रियों सहित उच्च पदस्थ

कांग्रेसियों के अमरीकि कनेक्शन खोजने में लग गया है ताकि यह पता लगाया जा सके कि इस खबर को

प्रायोजित किसके द्वारा करवाया गया है।Time Cover

माना जा रहा है कि 1923 में ब्रिटन हेडन और हेनरी ल्यूस द्वारा स्थापित अमरीका की पहली साप्ताहिक

समाचार पत्रिका टाईम ने अपनी कव्हर स्टोरी में डॉ.मनमोहन सिंह को अंडर एचीवर बताकर उस

वैश्विक धारणा को मजबूत किया है जिसके तहत भारत में मनमोहन सिंह के प्रति बनी आम धारणा कि वे

कठपुतली प्रधानमंत्री हैं को बल मिलता है।

भारत में मनमोहन सिंह को बिना रीढ़ का व्यक्तित्व भी माना जाने लगा है क्योंकि वे देश के प्रधानमंत्री

हैं, पर आज तक एक भी चुनाव नहीं जीते हैं। भारत गणराज्य में इससे बड़ी विडम्बना और कोई नहीं होगी

कि देश का प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह लोकसभा में ही वोट डालने का हक नहीं रखता जहां उसे अपनी

सरकार के लिए बहुमत सिद्ध करना होता है।

पीएमओ के सूत्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह के बारे में तरह तरह की बातों के बाजार

में आने के बाद देश के मीडिया को ‘सैट‘ करने के लिए हरीश खरे को पीएमओ बुलाया गया था। खरे के

कार्यकाल में संप्रग टू के जबर्दस्त घपले घोटाले और भ्रष्टाचार सामने आते गए, जिन पर काबू करना

खरे के लिए बहुत कठिन हो रहा था।

सूत्रों की मानें तो इसी दौरान हरीश खरे के मशविरे पर प्रधानमंत्री ने देश के चुनिंदा संपादकों की टोली

बुलाकर अपने आप को मजबूत के स्थान पर मजबूर प्रधानमंत्री बताकर और किरकिरी करवा ली। हरीश

खरे के असफल रहने के दौरान पीएमओ में आए पुलक चटर्जी ने खरे के स्थान पर पंकज पचौरी को पीएम

का मीडिया संभालने की महती जवाबदारी दे दी।

पीएमओ के सूत्रों ने समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया को बताया कि पंकज पचौरी ने मीडिया पर सफलता के

साथ नकेल कसते हुए काफी हद तक लोगों का ध्यान ‘कमजोर प्रधानमंत्री‘ वाले मुद्दे से भटकाकर रखा

था। इसी बीच अमरिका की सिरमौर टाईम मेग्जीन ने मनमोहन सिंह को अपनी कव्हर स्टोरी में ही अंडर

एचीवर जतला दिया।

जैसे ही यह पत्रिका बाजार में आई, देश भर में हलचल मच गई और पीएमओ बुरी तरह हिल गया।

पीएमओ के भरोसेमंद सूत्रों का कहना है कि भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री को यह बताया गया है कि 7,

रेसकोर्स रोड़ यानी प्रधानमंत्री को आशियाना बनाने की चाहत रखने वाले वरिष्ठ कांग्रेसी द्वारा अपने

अमरीकि संबंधों का लाभ उठाकर टाईम जैसी मेग्जीन में यह प्रायोजित स्टोरी करवाई है।

इस बात में कितना दम है यह तो कहा नहीं जा सकता है, किन्तु जैसे ही यह पत्रिका बाजार में आई और

विवाद हुआ वैसे ही कांग्रेस के नेता मंत्रियों द्वारा प्रधानमंत्री के बचाव में आने से इसमें षणयंत्र की बू

आने लगी है। वैसे तो कहा जा रहा है कि टाईम मेग्जीन में प्रायोजित वह भी कव्हर स्टोरी के लिए ‘लंबा

पैसा‘ लगा होगा।

उधर, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर टाइम मैगजीन की कवर स्टोरी के बाद गृह मंत्री पी चिदंबरम

ने मनमोहन सिंह का बचाव करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री देश को आर्थिक संकट से बाहर ले आएंगे।

उन्होंने भाजपा को अटल बिहारी वाजपेयी पर टाइम के 2002 के लेख की याद दिलाई। उन्होंने कहा कि

टाइम मैगजीन ने जून 2002 में उस वक्त के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ क्या लिखा

था ये भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद को पढ़ना चाहिए था। गौरतलब है कि तब टाइम में वाजपेयी के

स्वास्थ्य के बारे में नकारात्मक टिप्पणी की गई थी।

वैसे, सरकार के लिए राहत की बात ये है कि एनडीए के कुछ सहयोगी इस मुद्दे पर बीजेपी के सुर में सुर नहीं

मिला रहे हैं। जदयू अध्यक्ष शरद यादव का कहना है कि टाइम मैगज़ीन में छपी बातें भ्रामक हैं।

शहरी विकास मंत्री कमलनाथ का कहना है कि टाइम मैगज़ीन को पहले अमेरिका और यूरोप के हालात

पर ध्यान देना चाहिए। वहीं केंद्रीय मंत्री अंबिका सोनी और कमल नाथ ने भी अपने प्रधानमंत्री का

बचाव किया है। अंबिका सोनी ने कहा, “पीएम बेहतर तरीके से काम कर रहे हैं और वो देश को संकट से बाहर

निकालने में सफल होंगे।” राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने भी खुलकर मनमोहन सिंह

का समर्थन किया और कहा है कि पीएम एक ईमानदार इंसान हैं और उनके जैसा नेता मिलना मुश्किल है।

विश्व विख्यात टाईम पत्रिका के कव्हर पेज पर मनमोहन सिंह की तस्वीर होना कांग्रेस के लिए गर्व

की बात हो सकती थी, बशर्ते यह नकारात्कम के बजाए सकारात्मक दृष्टिकोण में होती। गौरतलब है कि

इसके पहले कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी को टाईम मेग्जीन में सकारात्मक तौर पर स्थान

मिल चुका है।

कहीं सोनिया अपने त्याग को भुनाने की कोशिश में तो नहीं!

लिमटी खरे

कांग्रेस में सामंतशाही आज भी बदस्तूर जारी है। कांग्रेस की सत्ता और शक्ति की धुरी आज भी नेहरू

गांधी परिवार के इर्द गिर्द ही समटी दिखती है। कांग्रेस की आधिकारिक वेब साईट पर भी उपर महात्मा

गांधी के अलावा इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के बाद नेहरू गांधी परिवार की जिंदा पीढ़ी में इटली मूल की

सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर ही विशेष फोकस दिया जाना इस बात की ओर इशारा करता है कि सवा

सौ साल पुरानी और देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस के पास इस परिवार के अलावा

और कोई चेहरा है ही नहीं। पूर्व महामहिम राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी अपनी आत्मकथा में

सोनिया की स्तुति कर अपनी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगवा लिया है। आशंका तो यह व्यक्त की

जा रही है कि सालों बाद अपनी तारीफ में कशीदे गढ़वाकर कहीं राहुल गांधी की ताजपोशी के पहले सोनिया

गांधी खुद ही देश का वज़ीरे आज़म बनने की तैयारी में तो नहीं हैं?

मिसाईल मेन अब्दुल कलाम को सारा देश सेल्यूट ही करता आया है। उनकी आत्मकथा ‘टनिंग प्वाईंट:

अ जर्नी थ्रू चेलेन्जस‘ के बाजार में आने के पहले आए कुछ अंशों से उनकी छवि धूल धुसारित हो गई है।

इसके पीछे कांग्रेस के रणनीतिकारों की क्या सोच है यह तो वे ही जानें पर यह सच है कि इसमें सोनिया

गांधी को हीरो बनाकर कलाम ने अपनी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह अवश्य ही लगवा लिए हैं। सारा

देश जानता है कि कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार 2004 में देश पर शासन करने

आई और उसका शासन आज भी जारी है। संप्रग सरकार के राज में इस कदर घपले घोटाले और भ्रष्टाचार

के तांडव सामने आए हैं कि हर भारतीय को अब शर्म आने लगी है।

यह सब देखने के बाद भी अगर किसी की मोटी चमड़ी पर कोई असर नहीं हुआ है तो वह है कांग्रेस के आला

नेता। एक समय था जब विदेशी आक्रांता आकर देश को लूटते थे और देशवासी बेबस सब कुछ देखने

सुनने को मजबूर होते थे। आज हालात बदल गए हैं। आज देश के ही लोग देश को सरेराह लूट रहे हैं और

देश के गणतंत्र के पहरूए अपनी मौन सहमति उन्हें दे रहे हैं। पिछले एक दशक का इतिहास साक्षी है कि

भ्रष्टाचार, घपले घोटालों पर कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी और युवराज राहुल गांधी ने

एक भी शब्द नहीं बोला है।

अब जबकि यह मान लिया गया है कि आने वाले समय में अगर कांग्रेस या उसका गठबंधन सत्ता में

आया तो देश की बागडोर राहुल गांधी को ही संभालना है तब अचानक महामहिम राष्ट्रपति के चुनाव

के एन पहले आखिर एसी क्या जरूरत आन पड़ी कि मीडिया में सोनिया गांधी की तारीफों में कशीदे गढ़ने

आरंभ हो गए हैं? सोनिया को हीरो बनाने के पीछे के निहितार्थ सियासी गलियारों में खोजे जाने लगे हैं।

कहा तो यहां तक भी जा रहा है कि चूंकि राहुल गांधी अभी नादान और कच्ची मिट्टी के लौंधे हैं अतः उन्हें

आकार लेने और तपने में अभी समय है तब तक के लिए मनमोहन ंिसंह पर दुबारा दांव लगाना उचित

नहीं होगा। सोनिया के पास मनमोहन जैसा दूसरा ‘यस मैन‘ नहीं है। इसलिए संभवतः सोनिया को ही यह

मशविरा दिया गया है कि पहले सोनिया के त्याग को हाईलाईट करवा दिया जाए उसके बाद उसी की आड़

में कुछ समय के लिए ही सही देश की बागडोर सोनिया गांधी के हाथों में परोक्ष के बजाए प्रत्यक्ष रूप से

सौंप दी जाए।

सियासी गलियारों मे चल रही बयार के अनुसार समाजवादी पार्टी के निजाम मुलायम सिंह यादव और

त्रणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी के बीच छः माह पूर्व ही यह समझौता हो गया था कि वे दोनों मिलकर

कलाम का नाम आगे बढ़ाएंगे। इस बारे में दोनों ने कलाम से चर्चा कर उनकी सहमति भी प्राप्त कर ली

थी। कलाम के करीबियों का दावा है कि इस समीकरण के चलते कलाम अपनी आटोबायोग्राफी जल्द से

जल्द पूरा कर बाजार में लाना चाहते थे।

इस पुस्तक में सोनिया गांधी के प्रहसन को काफी हल्के रूप में वर्णित किया गया था। जब कलाम का

नाम ममता मुलायम ने आगे बढ़ाया तो कलाम ने भी अपनी किताब को समाप्त करने की गति तेज कर

दी। कहते हैं कि आधी अधूरी यह किताब किसी तरह पत्रकार एम.जे.अकबर ने पढ़ने के लिए हासिल कर

ली। कांग्रेस के प्रति अकबर की पुरानी निष्ठा एक बार बलवती हुई और उन्होंने इस किताब की पांडुलिपि

को सोनिया के करीबी सुमन दुबे को पढ़ने को भेज दी। बरास्ता सुमन दुबे यह किताब जा पहुंची सोनिया के

दरबार।

बताते हैं कि चूंकि सोनिया काफी व्यस्त थीं, इसलिए जनार्दन रेड्डी ने इसे पढ़कर इसके भावार्थ सोनिया

को बताए। उधर, इसी बीच सोनिया और ममता की मुलाकात हुई। सोनिया ने सामान्य तौर इस किताब के

वाक्यों का जिकर करते हुए ममता के सामने दो नाम रखकर उसे सार्वजनिक करने को कह दिया। कहते हैं

कि इसके बाद कांग्रेस के संकटमोचकों ने अपना खेल खेला।

कलाम के एक करीबी ने नाम उजागर ना करने की शर्त पर कहा कि कांग्रेस की राजमाता के एक दूत ने

जाकर कलाम की चिरौरी की और कहा कि इसमें सोनिया प्रसंग को दुबारा लिखा जाए जिसमें सोनिया

को त्याग की प्रतिमूर्ति प्रदर्शित किया जाए। कलाम इसके लिए पहले तो राजी नहीं हुए पर जब

ब्रम्हास्त्र (जिसका उल्लेख उन्होंने नहीं किया) चलाया गया तब जाकर कहीं कलाम ने अपने ही

लेखन में सोनिया के प्रसंग को काफी हद तक प्रभावशाली बनाने अपनी सहमति दे दी। कहा जाता है कि

कलाम की पुस्तक में सोनिया प्रकरण और किसी ने नहीं वरन् सोनिया के एक करीबी हिन्दी के बेहतरीन

जानकार द्वारा लिखा गया है।

कलाम की किताब के अंश लीक होते ही कांग्रेस के रणनीतिकारों द्वारा साधे गए मीडिया ने भी सोनिया

चालीसा का पाठ आरंभ कर दिया। इस सबके बीच विपक्ष की सारी दलीलें नक्कारखाने में तूती ही साबित

हुईं। यक्ष प्रश्न तो आज भी यही है कि सालों बाद आखिर सोनिया के महिमा मण्डन की आवश्यक्ता

क्यों आन पड़ी? क्यों कलाम की अंतरात्मा को जागने में एक दशक के लगभग का समय लगा? अगर

सोनिया प्रधानमंत्री बन सकती थीं तो फिर जनता पार्टी के सुप्रीमो सुब्रह्ण्यम स्वामी के आरोपों पर

कांग्रेस ने मौन क्यों साधे रखा? आखिर 1999 में विदेशी नस्ल के मुद्दे पर अड़े मुलायम सिंह यादव आज

सोनिया की जयजयकार क्यों कर रहे हैं?

हालात इस ओर ही इशारा कर रहे हैं कि वज़ीरे आज़म डॉ.मनमोहन सिंह अब सरकार का नेतृत्व करने में

अक्षम ही साबित हो चुके हैं। प्रणव मुखर्जी महामहिम की दौड़ में हैं, मनमोहन का सक्सेसर बनने के

लिए कांग्रेस के अंदर घमासान मचा हुआ है। ए.के.अंटोनी, पलनिअप्पम चिदम्बरम, सोमनहल्ली मलैया

कृष्णा, सुशील कुमार शिंदे, गुलाम नबी आजाद, कमल नाथ, कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा, जयराम रमेश

के अलावा शरद पवार भी पीएम की कुर्सी पर बैठने लाबिंग कर रहे हैं।

कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस में उपरी तौर पर तो सब कुछ सामान्य ही दिख रहा है

किन्तु अंदर के अंदर हालात काफी हद तक विस्फोटक ही माने जा सकते हैं। इन परिस्थितियों में हालात

को संभालने के लिए नेहरू गांधी परिवार के सदस्य को ही प्रधानमंत्री की कुर्सी थामना अत्यावश्यक हो

गया है। प्रियंका वढ़ेरा इसके लिए तैयार नहीं हैं, राहुल को आला नेता आज भी अपरिपक्व की श्रेणी में ही

रख रहे हैं। लिहाजा, अब सोनिया गांधी को ही आगे आना होगा।

सोनिया के आगे आने पर उनके सामने सबसे बड़ा मुद्दा विदेशी नस्ल का है। विदेशी मूल की होने के

कारण उनकी स्वीकार्यता लगभग नगण्य ही मानी जा सकती है। संभवतः यही कारण है कि कांग्रेस के

रणनीतिकारों ने विदेशी नस्ल होने के बाद प्रधानमंत्री जैसे पद के त्याग की मनगढंत कहानी वह भी

पूर्व महामहिम एपीजे अब्दुल कलाम से गढ़वाकर सोनिया के प्रति सिंपेथी बटोरने का कुत्सित प्रयास

किया है।

कांग्रेस के संकटमोचक भले ही शतुरमुर्ग के मानिंद रेत में सर गड़ाकर यह मान लें कि उन्हें कोई नहीं

देख रहा पर सोनिया के प्रति अचानक उमड़ी सिंपेथी जनता भांप चुकी है और उनकी आंखों के सामने हुए

घपले घोटाले, भ्रष्टाचार के नंगे नाच और उनके विदेशी नस्ल के मामले को शायद ही जनता भुला पाए।

माना जा रहा है कि अपने आप को त्याग की प्रतिमूर्ति प्रचारित कर चुनिंदा मीडिया घरानों के माध्यम

से अपनी छवि निर्माण कर टीआरपी बढ़वाकर सोनिया अपने उस त्याग को भुनाने की कोशि में हैं। हालत

देखकर, आने वाले समय में अगर सोनिया गांधी का डाक का पता 10, जनपथ (बतौर सांसद सोनिया को

आवंटित सरकारी आवास) से बदलकर 7, रेसकोर्स रोड़ (भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री का आवास) हो

जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

तेज विकास दर के बावजूद बिहार और गुजरात भुखमरी के पैमाने पर साथ खड़े हैं

मोदी बनाम नीतिश : ‘विकास पुरुष’ की फर्जी लड़ाई

आनंद प्रधान

राष्ट्रीय राजनीति में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की बढ़ती दावेदारी और आपसी प्रतिस्पर्द्धा के पीछे सबसे बड़ी वजह यह मानी जाती रही है कि दोनों ने अपने-अपने राज्यों में ‘सुशासन’ के जरिये न सिर्फ चमत्कारिक और तेज आर्थिक विकास सुनिश्चित किया है बल्कि अपने-अपने राज्यों को विकास दर के मामले में देश के टाप राज्यों में पहुंचा दिया है. इस कारण दोनों अपने को ‘विकासपुरुष’ के रूप में पेश करते रहे हैं.
यही नहीं, दोनों में एक समानता और है. दोनों खुद को अपने-अपने राज्यों की क्षेत्रीय, गुजराती और बिहारी अस्मिता के प्रतीक के बतौर पेश करते हैं. लेकिन दोनों के बीच विकास के नीतिश बनाम नरेन्द्र मोदी माडल को ज्यादा बेहतर बताने की होड़ भी है.
लेकिन उनके दावों की सच्चाई क्या है? असल में, उनके दावे ‘आधी हकीकत और आधा फ़साना’ के ऐसे उदाहरण हैं जिनके आधार पर उनकी ‘विकास पुरुष’ की छवियाँ गढ़ी गई हैं. इन दावों को बारीकी और करीब से देखने पर ही यह स्पष्ट हो पाता है कि उनमें कितना यथार्थ है और कितना मिथ?
लेकिन इससे पहले कि दोनों राज्यों के आर्थिक और मानवीय विकास और उनके सुशासन के दावों को करीब से देखा जाए, यह जानना बहुत जरूरी है कि इन दोनों मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल २१ वीं सदी का पहला दशक है जिसमें न सिर्फ ये दोनों राज्य बल्कि देश के अधिकांश राज्यों में आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार में तेजी देखी गई है और खुद भारत की जी.डी.पी वृद्धि दर पूर्व के सभी दशकों से तेज रही है.
इस तथ्य पर गौर कीजिए:
·         १९९४-९५ से १९९९-०० के बीच देश की जी.डी.पी वृद्धि दर औसतन ६.०९ फीसदी थी जो २०००-०१ से २००९-१० के बीच बढ़कर औसतन ७ फीसदी हो गई. इस दौरान गुजरात की राज्य जी.डी.पी वृद्धि दर ९४-९५ से ९९-०० के बीच औसतन ८ फीसदी थी जो ००-०१ से ०९-१० के बीच बढ़कर ८.६८ फीसदी हो गई है.
साफ़ है कि गुजरात में नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में औसतन सिर्फ ०.६८ फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है. अलबत्ता, इस बीच बिहार में जी.डी.पी वृद्धि दर ने जरूर तेज छलांग लगाईं है. बिहार में ९४-९५ से ९९-०० के बीच जी.डी.पी की औसत वृद्धि दर ४.७० फीसदी थी जो ००-०१ से ०९-१० के बीच उछलकर औसतन ८.०२ फीसदी तक पहुँच गई है. लेकिन इन दस वर्षों में पांच वर्ष लालू प्रसाद और पांच वर्ष नीतिश कुमार की सरकार रही है.
दूसरे, इसी दौरान देश के कई और राज्यों की औसत वृद्धि दर में ऐसी ही उछाल देखी गई है. इन राज्यों में छत्तीसगढ़ (२.८८ फीसदी से ७.९८ फीसदी), हरियाणा (५.९६ फीसदी से ८.९५ फीसदी), उत्तराखंड (३.२२ फीसदी से ११.८४ फीसदी), ओडिशा (४.४२ फीसदी से ७.९५ फीसदी) और महाराष्ट्र (६.३० फीसदी से ८.१३ फीसदी) जैसे राज्य शामिल हैं जिनका आर्थिक प्रदर्शन किसी भी मायने में गुजरात या बिहार से कमतर नहीं है.
साफ है कि तेज आर्थिक विकास के मामले में गुजरात या बिहार कोई अपवाद नहीं हैं और न ही यह सिर्फ इन दोनों राज्यों तक सीमित परिघटना है. सच यह है कि इन दोनों राज्यों को देश और अन्य राज्यों की तेज आर्थिक विकास का फायदा मिला है क्योंकि यह संभव नहीं है कि देश और बाकी राज्यों में आर्थिक विकास ठप्प हो और सिर्फ गुजरात और बिहार तेज रफ़्तार से भाग रहे हों.
और अब आइये इन दोनों राज्यों के आर्थिक विकास के तथ्यों के आलोक में विकास पुरुषों के विकास के फ़साने को समझा जाए: 
–    यह एक तथ्य है कि गुजरात आर्थिक विकास और प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू उत्पाद (एस.डी.पी) के मामले में लंबे अरसे से देश के शीर्ष राज्यों में रहा है. ऐसा नहीं है कि यह ‘चमत्कार’ भाजपा और खासकर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में हुआ है. तथ्यों के मुताबिक, गुजरात प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू उत्पाद के मामले में गुजरात पिछले चार दशकों से अधिक समय से देश के शीर्ष के दस बड़े राज्यों में पांचवें या छठे स्थान पर रहा है. एकाध बार चौथे स्थान पर भी रहा है.
लेकिन प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू उत्पाद के मामले में हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्य उससे आगे हैं. साफ़ है कि मोदी ने आर्थिक विकास के मामले में कोई ऐसा चमत्कार नहीं कर दिया है जो और कोई मुख्यमंत्री नहीं कर पाया है.
–    दूसरी ओर, बिहार में नीतिश कुमार के कार्यकाल में बिहार की जी.डी.पी वृद्धि दर (०५-०६ में ०.९२ फीसदी, ०६-०७ में १७.७५ फीसदी, ०७-०८ में ७.६४ फीसदी, ०८-०९ में १४.५८ फीसदी, ०९-१० में १०.४२ फीसदी, १०-११ में १४.७७ फीसदी और ११-१२ में १३.१३ फीसदी) जरूर चमत्कारिक और हैरान करनेवाली दिखती है लेकिन वह न सिर्फ एकांगी और विसंगत वृद्धि का नमूना है बल्कि आंकड़ों का चमत्कार है.
असल में, यह बिहार की अर्थव्यवस्था के अत्यधिक छोटे आकार में हो रही वृद्धि का नतीजा है जिसे अर्थशास्त्र में बेस प्रभाव कहते हैं. चूँकि बिहार की जी.डी.पी का आकार छोटा है और उसकी वृद्धि दर भी कम थी, इसलिए जैसे ही उसमें थोड़ी तेज वृद्धि हुई, वह प्रतिशत में चमत्कारिक दिखने लगी.
दूसरे, बिहार की मौजूदा आर्थिक वृद्धि दर न सिर्फ एकांगी और विसंगत है बल्कि वह अर्थव्यवस्था के सिर्फ कुछ क्षेत्रों में असामान्य उछाल के कारण आई है. उदाहरण के लिए, बिहार की आर्थिक वृद्धि में मुख्यतः निर्माण क्षेत्र यानी सड़कों-पुलों-रीयल इस्टेट में बूम की बड़ी भूमिका है.
यही नहीं, इस तेज वृद्धि दर के बावजूद बिहार की प्रति व्यक्ति आय २००५-०६ में ८३४१ रूपये थी जो नीतिश कुमार के कार्यकाल के दौरान बढ़कर २०१०-११ तक २००६९ रूपये तक पहुंची है.
अब अगर इसकी तुलना देश के कुछ अगुवा राज्यों की प्रति व्यक्ति आय से करें तो पता चलता है कि हरियाणा के ९२३८७ रूपये, पंजाब के ६७४७३ रूपये, महाराष्ट्र के ८३४७१ रूपये और तमिलनाडु के ७२९९३ रूपये से काफी पीछे है. इसका अर्थ यह हुआ कि अगर बिहार में जी.डी.पी की यह तेज वृद्धि दर इसी तरह बनी रहे और अगुवा राज्य भी अपनी गति से बढते रहे तो देश के अगुवा राज्यों तक पहुँचने में बिहार को अभी कम से कम दो दशक और लगेंगे.
लेकिन उससे भी जरूरी बात यह है कि बिहार में मौजूदा विकास/वृद्धि के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वहाँ औद्योगिक विकास खासकर मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में कोई विकास नहीं है और बुनियादी ढांचे खासकर बिजली के मामले में स्थिति बद से बदतर हुई है. इसी तरह, कृषि में भी अपेक्षित वृद्धि नहीं दिखाई दे रही है.
ऐसे और भी कई तथ्य हैं जो इन दोनों राज्यों में तेज आर्थिक विकास की विसंगतियों की सच्चाई सामने लाते हैं. लेकिन अगर एक मिनट के लिए उनके दावों को स्वीकार भी कर लिया जाए तो असल सवाल यह है कि तेज वृद्धि दर के बावजूद इन राज्यों में मानव विकास का क्या हाल है?
क्या इस तेज विकास का फायदा भोजन, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, रोजगार आदि क्षेत्रों और राज्य के सभी इलाकों और समुदायों को भी मिला है?
इस मामले में तथ्य बहुत निराश करते हैं:
·         बिहार में गरीबी, भुखमरी, स्वास्थ्य-शिक्षा और रोजगार के हाल के बारे में जितनी कम बात की जाए, उतना ही अच्छा है. नीतिश कुमार के कार्यकाल में तेज वृद्धि दर के बावजूद मानव विकास के सभी मानकों पर बिहार अभी भी देश के बड़े राज्यों में सबसे निचले पायदान के तीन राज्यों में बना हुआ है.

·         लेकिन तीव्र आर्थिक वृद्धि के बावजूद मानव विकास के कई मानकों पर गुजरात का रिकार्ड शर्मनाक है. उदाहरण के लिए, भुखमरी के मामले में गुजरात, देश के सबसे बदतर राज्यों की सूची में बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों के साथ बराबरी में खड़ा है. यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश भी भुखमरी के इंडेक्स में गुजरात से ऊपर है.
यह इस बात का सबूत है कि गुजरात में गैरबराबरी बहुत अधिक है और तीव्र विकास का लाभ गरीबों तक नहीं पहुँच रहा है. यही नहीं, बाल कुपोषण दर के मामले में भी गुजरात का रिकार्ड देश के कई विकसित राज्यों की तुलना में बहुत खराब और बदतर राज्यों के करीब है.
इसके अलावा, गुजरात में तेज आर्थिक विकास का लाभ आदिवासियों और मुस्लिमों को नहीं मिला है. खासकर मुस्लिमों के साथ भेदभाव यहाँ तक कि उनके अघोषित आर्थिक बायकाट की नीति के कारण उनकी स्थिति बद से बदतर हुई है.
इन तथ्यों से साफ़ है कि मोदी और नीतिश खुद को ‘विकास पुरुष’ के रूप में चाहे जितना पेश करें लेकिन उन्होंने विकास का कोई नया, ज्यादा समावेशी और टिकाऊ माडल नहीं पेश किया है. उनकी अर्थनीति किसी भी रूप में केन्द्र की यू.पी.ए सरकार या किसी कांग्रेसी मुख्यमंत्री से अलग नहीं है.
दोनों (खासकर मोदी) उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ा रहे हैं जो गरीबों को बाईपास करके निकल जाने के लिए जानी जाती है. सच यह है कि उन्होंने बहुत चतुराई से देश भर में हो रही मौजूदा आर्थिक वृद्धि को अपनी छवि गढ़ने के लिए इस्तेमाल कर लिया है लेकिन उसके नकारात्मक नतीजों का ठीकरा केन्द्र सरकार पर फोड दिया है.
इस मामले में दोनों का कोई जवाब नहीं है. दोनों एक ही खेल के माहिर हैं और इस कारण स्वाभाविक तौर पर उनमें होड़ भी दिखाई पड़ती है. देखिये, छवियों की इस लड़ाई में कौन बीस बैठता है?

राष्ट्रपति चुनाव के पहले ही मच गया घमासान

(शरद खरे)

नई दिल्ली । देश में अगला महामहिम राष्ट्रपति कौन होगा इस बात पर बहस होने के पहले ही देश की उपरी सियासत में बदबूदार कीचड़ की बूंदे दिखना आरंभ हो गया है। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की प्रकाशित किताब के अंश बाहर आते ही कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी को त्याग की प्रतिमूर्ति तो कहीं इससे विपरीत बातें कही जाने लगी हैं। उल्लेखनीय है कि पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम एक पुस्तक लिखी है जो अभी तक बाजार में नहीं आई है पर उसके अंश कथित तौर पर अवश्य ही बाहर आ गए हैं। इसमें उन्होंने उस राजनीतिक रहस्य से पर्दा उठा दिया है कि सन 2004 में जब वे राष्ट्रपति थे तब सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के खिलाफ थे या नहीं। कलाम ने अपनी जल्द ही रीलीज होने जा रही पुस्तक टर्निंग पोइंट्स, अ जर्नी थ्रू चौलेंजेस में खुलासा किया है कि अगर सोनिया पीएम बनना चाहतीं तो उनके पास कोई और विकल्प नहीं होता सिवाय उनकी नियुक्ति के ।

कहा जा रहा है कि 13 मई, 2004 को आए चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस संसदीय दल व नए बने यूपीए  गठबंधन का अध्यक्ष बनने के बावजूद सोनिया ने पीएम नहीं बनने का निर्णय किया था। कांग्रेस नीत  सरकार का बाहर से समर्थन करने का निर्णय करने वाले वामदलों ने भी सोनिया का नाम पीएम पद के  लिए प्रस्तावित किया था लेकिन कई दक्षिण पंथी पार्टियों ने सोनिया के विदेशी होने का मुद्दा उठाकर  उनके पीएम बनने का विरोध किया था।  कहते हैं कि कलाम ने लिखा है, कई नेता मुझसे मिले और किसी तरह के दबाव में न आकर सोनिया को  पीएम नियुक्त करने का निवेदन किया, यह घ्सा निवेदन था जोकि संवैधानिक रूप से तर्कसंगत नहीं था। अगर सोनिया ने अपने लिए कोई दावा किया होता तो मेरे पास उन्हें नियुक्त करने के अलावा कोई और  विकल्प नहीं था। एक अखबार के अनुसार कलाम ने अपनी पुस्तक में लिखा है, मैं तब चकित रह गया जब  18 मई को सोनिया ने पीएम पद के लिए मनमोहन सिंह का नाम लिया।  एक जानकार ने बताया कि कलाम ने पुस्तक में कहा, ‘‘उस समय कई  ऐसा नेता थे जो इस अनुरोध के साथ मुझसे मिलने आए कि मैं किसी दबाव के सामने नहीं झुकूं और  श्रीमती सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री नियुक्त करुं, यह एक ऐसा अनुरोध था जो संवैधानिक रुप से मान्य नहीं होता। यदि उन्होंने स्वयं ही अपने लिए कोई दावा किया होता तो मेरे पास उन्हें नियुक्त करनेके सिवा कोई विकल्प नहीं होता।’’ उन्होंने लिखा है कि लोकसभा चुनाव के नतीजे घोषित हो जाने के तीन  दिन तक कोई भी दल या गठबंधन सरकार बनाने के लिए आगे नहीं आया। उन्होंने लिखा है कि उन्हें अपने  कार्यकाल के दौरान कई कडे फैसले करने पडे। पूर्व राष्ट्रपति ने लिखा है, ‘‘कानूनी और संवैधानिक विशेषज्ञों की राय जानने के बाद बिल्कुल ही  निष्पक्ष तरीके से मैंने अपना दिमाग लगाया। इन सभी फैसलों का प्राथमिक लक्ष्य संविधान की  गरिमा का संरक्षण और संवर्धन तथा उसे मजबूती प्रदान करना था।’’ वर्ष 2004 के चुनाव को रोचक   घटना करार देते हुए उन्होंने लिखा है, ‘‘यह मेरे लिए चिंता का विषय था और मैंने अपने सचिवों से पूछा  तथा मैंने सबसे बडे दल को सरकार गठन के लिए आगे आने और दावा करने के लिए पत्र लिखा। इस  स्थिति में कांग्रेस सबसे बडा दल था।’’

कलाम ने लिखा है, ‘‘मुझे बताया गया कि सोनिया गांधी 18 मई को दोहपर सवा बारह बजे मुझसे मिल रही हैं। वह समय से आयीं और अकेले आने के बजाय वह डॉ। मनमोहन सिंह के साथ आयीं एवं मेरे साथ  उन्होंने चर्चा की। उन्होंने कहा कि उनके पास पर्याप्त संख्याबल है लेकिन वह पार्टी पदाधिकारियों के  हस्ताक्षर वाले समर्थन पत्र लेकर नहीं आयी हैं।’’ पूर्व राष्ट्रपति ने कहा, ‘‘उन्होंने (सोनिया गांधी ने) कहा कि वह 19 मई को समर्थन पत्र लेकर आयेंगी।  मैंने उनसे पूछा कि आपने क्यों स्थगित कर दिया। हम आज दोपहर भी इसे (सरकार गठन संबंधी  औपचारिकता) पूरा सकते हैं। वह चली गयीं। बाद में मुझे संदेश मिला कि वह (अगले दिन) शाम में सवा आठ बजे मुझसे मिलेंगी।’’ जब यह संवाद चल रहा था तब कलाम को विभिन्न व्यक्तियों, संगठनों और  दलों से कई ईमेल और पत्र मिले कि उन्हें सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहिए। उन्नीस  मई को निर्धारित समय शाम सवा आठ बजे सोनिया गांधी सिंह के साथ राष्ट्रपति भवन आयीं।  कलाम आगे लिखते है, ‘‘बैठक में परस्पर अभिवादन के बाद उन्होंने मुझे विभिन्न दलों के समर्थन  पत्र दिखाए। उसपर मैंने कहा कि स्वागतयोग्य है। आपको जो समय सही लगे राष्ट्रपति भवन  शपथग्रहण समारोह के लिए तैयार है। उसके बाद उन्होंने मुझसे कहा कि वह डॉ। मनमोहन सिंह को बतौर  प्रधानमंत्री नामित करना चाहेंगी जो 1991 में आर्थिक सुधारों के शिल्पी थे और बेदाग छवि के साथ  कांग्रेस पार्टी के भरोसेमंद लेफ्टिनेंट हैं।’’ उन्होंने लिखा, ‘‘निश्चित रुप से यह मेरे लिए एक आश्चर्य था और फिर से राष्ट्रपति भवन सचिवालय को डॉ। मनमोहन सिंह को बतौर प्रधानमंत्री नियुक्त करने और उन्हें शीघ्र ही सरकार गठन का न्यौता देने वाला पत्र लिखना पडा।’’ पूर्व राष्ट्रपति की इस पुस्तक को हार्परकोलिंस इंडिया ने छापी है और अगले सप्ताह यह रिलीज होने वाली है। 22 मई को सिंह ओर 67 मंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह के बाद कलाम ने इस बात की राहत की सांस ली कि यह महत्वपूर्ण कार्य अंततः पूरा हो गया। उधर, जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद यादव ने आज पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम पर उनकी इन टिप्पणियों के लिए हमला किया कि 2004 में वह सोनिया गांधी के खिलाफ जबर्दस्त लॉबिंग के  बावजूद उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त करने को तैयार थे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गंठबंधन के संयोजक शरद  यादव ने कहा, ‘‘उनकी अंतरात्मा देर से जगी है। यह खुद के अभ्युदय के लिए हैं। हम उनका बहुत सम्मान  करते थे, लेकिन इस तरह की टिप्पणियों के बाद अब बहुत दुखी हैं।’’

राजग के कार्यकाल में राष्ट्रपति बने कलाम के खिलाफ जद (यू) प्रमुख की टिप्पणी पूर्व राष्ट्रपति द्वारा किताब में यह खुलासा किए जाने के बाद आई है कि सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को लेकर कुछ हल्कों में जबर्दस्त राजनीतिक विरोध के बावजूद वह 2004 में उन्हें बिना किसी हिचक के प्रधानमंत्री के रुप में शपथ दिलाने के लिए तैयार थे। अपनी पुस्तक ‘टर्निंग प्वाइंट्स’ में कलाम ने यह भी कहा है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी 2002 के दंगों के बाद उनकी गुजरात यात्र के पक्ष में नहीं थे। कलाम की इस टिप्पणी पर कांग्रेस को कल वाजपेयी की ‘राजधर्म’ वाली नसीहत पर सवाल उठाने का मौका मिल गया। यह सलाह वाजपेयी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को दी थी। शरद ने यह भी पूछा कि कलाम आठ साल तक चुप क्यों रहे, जब राजनीतिक जगत में ‘‘अफवाहों और चर्चाओं का दौर जारी था। शरद ने कहा, ‘‘संवैधानिक प्रमुख को सच तभी बोलना चाहिए जब इसकी जरुरत हो। अंतरात्मा की आवाज पर बोलने का तब कोई मतलब नहीं है जब उससे आपका हितसाधन हो। गांधी जी अपनी अंतरात्मा के अनुरूप तत्काल बोला करते थे। उन्होंने उस समय अपनी अन्तरात्मा को  क्यों मार दिया।’’ जदयू प्रमुख ने आठ साल बाद सच बोलने का कारण जानना चाहा। उन्होंने कहा, ‘‘सच तभी बोलना चाहिए जब इसकी आवश्यकता हो। यदि यह तब बोला जाता है जब इसकी  जरूरत नहीं हो तो यह दिखावा होता है। राष्ट्रपति भवन में बैठे व्यक्ति का दायित्व है कि वह इन हालात  में सच बोले और सच बोलने के लिए किसी अवसर का इंतजार नहीं करे।

हिन्दुत्व नहीं है, हिन्दू धर्म !

नीतीश-मोदी विवाद: धर्मनिरपेक्षता पर बहस का सबब

-राम पुनियानी

राम पुनियानी


आने वाले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने के भाजपा के संभावित इरादे के सदंर्भ में, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल में कहा कि एनडीए को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार किसी ऐसे व्यक्ति को बनाना चाहिए जो धर्मनिरपेक्ष हो। इस बीच, भाजपा से कई अलग-अलग स्वर उभरे। एक नेता ने कहा कि वैचारिक दृष्टि से अटलबिहारी वाजपेयी, एल के आडवानी और मोदी में कोई अंतर नहीं है। एक अन्य नेता ने कहा कि चूंकि हिन्दुत्व, धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी है इसलिए कोई कारण नहीं कि मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हो सकते।

नीतीश कुमार दूध के धुले नहीं हैं और न ही धर्मनिरपेक्षता के प्रतिबद्ध सिपाही हैं। सन् 1996 में, जब भाजपा लोकसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी, तब किसी भी पार्टी की उससे गठबंधन करने की हिम्मत नहीं हुई क्योंकि बाबरी मस्जिद कांड और उसके बाद हुई हिंसा लोगों के दिमागों मे ताजा थी और भाजपा की छवि एक घोर साम्प्रदायिक पार्टी की थी। सन् 1998 में जब यही स्थिति एक बार फिर बनी तब कई पार्टियां-जिनमें नीतीश कुमार की जेडीयू शामिल थी – सत्ता का लोभ संवरण नहीं कर सकीं और भाजपा के साथ एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर सत्ता में बैठने को राजी हो गईं।

मोदी के मामले में भाजपा नेताओं के बयानों में काफी सच्चाई है। यह कहना बिलकुल ठीक है कि विचारधारात्मक दृष्टि से वाजपेयी, आडवानी और मोदी में कोई अंतर नहीं है। ये सभी समर्पित स्वयंसेवक हैं जो आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के एजेन्डे की पूर्ति के लिए काम कर रहे हैं। उनमें जो अंतर दिखलाई देते हैं वे मात्र इसलिए हैं क्योंकि उनकी मातृ संस्था ने उन्हें अलग-अलग काम सौंपे हुए हैं। चूंकि बीजेपी को निकट भविष्य में अपने बलबूते पर बहुमत में आने की उम्मीद नहीं थी इसलिए उसे एक उदारवादी चेहरे की जरूरत थी। इस रोल के लिए वाजपेयी को चुना गया और आडवानी, जो साम्प्रदायिकता के रथ को पूरे देश में घुमाकर राम मंदिर के नाम पर खून-खराबा करवाने के लिए जिम्मेदार थे, को वाजपेयी के अधीन काम करने पर मजबूर किया गया।

इस तरह, यद्यपि विचार और विचारधारा के स्तर पर तीनों में कोई अंतर नहीं है परंतु विभिन्न मौकों पर उन्हें विभिन्न भूमिकाएं अदा करनी होती हैं व मात्र इस कारण वे एक-दूसरे से अलग जान पड़ते हैं। जहां तक हिन्दुत्व के धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी होने का तर्क है, वह पूर्णतः हास्यास्पद है। हिन्दुत्व, हिन्दू धर्म नहीं है। हिन्दू धर्म तो उन सभी धार्मिक धाराओं का संगम है जो दुनिया के विभिन्न भागों से भारत पहुंची और यहां पल्लिवत-पुष्पित हुईं। दूसरी ओर, हिन्दुत्व एक राजनैतिक विचारधारा और अवधारणा है जिसे यह स्वरूप देने में वीडी सावरकर का महत्ववपूर्ण योगदान था। उन्होंने हिन्दुत्व को उन सभी चीजों का संगम बताया जो कि हिन्दू थीं। उनके लिए हिन्दुत्व, आर्य नस्ल, एक संस्कृति विशेष और एक भाषा विशेष का संगम था। हिन्दुत्व, हिन्दू धर्म की ब्राहम्णवादी धारा पर आधारित है और जातिगत और लैंगिक ऊँचनीच का पोषक है।

जिस समय सारा देश स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों के झंडे तले एक हो रहा था उस समय हिन्दुत्ववादी, जिनमें से अधिकांश राजा, जमींदार और उच्च जातियों के हिन्दू थे, ने स्वयं को अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष से दूर रखा। उन्होंने मिलजुलकर हिन्दू महासभा और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संध की स्थापना की। उनकी राजनीति, मुस्लिम लीग की राजनीति के समानांतर परंतु विपरीत थी। मुस्लिम लीग भी उन्हीं तर्कों के आधार पर इस्लामिक राष्ट्र की मांग कर रही थी जिन तर्कों का सहारा लेकर संघ, भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता था। जहां हिन्दू महासभा और आरएसएस प्राचीन भारत का महिमामंडन करने में जुट गए और यह कहने लगे कि भारत तो हमेशा से हिन्दू राष्ट्र था वहीं मुस्लिम लीग ने मुस्लिम बादशाहों की विरासत पर कब्जा कर लिया। महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले स्वाधीनता संघर्ष का उद्देश्य हमारे देश को साम्राज्यवादी चंगुल से मुक्त कराना तो था ही, यह आंदोलन देश के जातिगत और लैंगिक रिश्तों में आमूलचूल परिवर्तन का भी हामी था। गांधीजी की राजनीति का लक्ष्य था एक नए राष्ट्र का निर्माण।

उस समय का श्रेष्ठिवर्ग, अपने विशेषाधिकार बचाए रखने की खातिर धर्म का सहारा लेता था। उसे डर था कि समाज में आ रही परिवर्तन की आंधी उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा और विशेषाधिकारों को उड़ा ले जाएगी। हिन्दुत्व की राजनीति के सबसे बड़े विचारकों में से एक, एम. एस. गोलवलकर ने अपनी पुस्तक “वी अवर नेशनहुड डिफाइंड“ में फासीवाद की जबरदस्त सराहना की है और यह तर्क दिया है कि स्वतंत्र भारत में मुसलमानों और ईसाईयों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर रखा जाना चाहिए। आज न तो आरएसएस इस पुस्तक के अस्तित्व से इंकार कर पा रहा है और न ही गोलवलकर की निहायत गैर-प्रजातांत्रिक और अस्वीकार्य नीतियों से स्वयं को अलग।

दरअसल, आरएसएस और उसके सदस्यों का प्रजातांत्रिक मुखौटा केवल तब तक के लिए है जब तक वे सत्ता में नहीं आ जाते। एक बार सत्ता में आने के बाद, वे अपना यह मुखौटा नोंच फेंकेगे और अपने असली, भयावह, एजेन्डे को देश पर लादने का काम शुरू कर देंगे। इस समय सुप्रशिक्षित स्वयंसेवक राज्यतंत्र के विभिन्न हिस्सों में घुसपैठ कर रहे हैं। उनमें से कई को भाजपा में भी भेजा गया है। भाजपा बार-बार यह कहती है कि वह “सबके लिए न्याय और किसी का तुष्टिकरण नहीं“ के सिद्धांत में विश्वास रखती है। यह एक अत्यंत धूर्ततापूर्ण नारा है जिससे यह जाहिर है कि पार्टी उन लोगों के लिए कुछ नहीं करना चाहती जो वर्तमान में भेदभाव-जनित पिछड़ेपन के शिकार हैं।

हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व के बीच अंतर हम कैसे समझें? एक मोटी सी बात तो यह है कि महात्मा गांधी हिन्दू थे परंतु हिन्दुत्ववादी नहीं। इसके विपरीत, नाथूराम गोड़से हिन्दुत्ववादी था। उसके जैसे व्यक्ति की राय में गांधी जैसे हिन्दू को जीने का अधिकार नहीं था। यद्यपि गांधी एक बहुत समर्पित व सच्चे हिन्दू थे तथापि चूंकि वे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के हामी थे इसलिए गोड़से के लिए वे उतनी ही घृणा के पात्र थे जितना कि कोई मुसलमान या ईसाई।

नीतीश कुमार का हालिया बयान देश के राजनैतिक यथार्थ के केवल एक छोटे से पहलू तक सीमित है। इस बहस को अधिक व्यापक बनाया जाना जरूरी है।


देश के पास नहीं होगा अगला वित्त मंत्री !

पीएम के साथ एफएम भी होंगे मन

(शरद खरे)

नई दिल्ली (साई)। मीडिया में अनेक बार इस तरह की खबरें साार्वजनिक हुईं कि भारत गणराज्य के

वज़ीरे आज़म डॉ.मनमोहन सिंह अपने आप को देश का प्रधानमंत्री से ज्यादा वित्त मंत्री ही मानते हैं,

यही कारण है कि वे वित्त को छोड़कर अन्य मामलों में कसावट करने में अपने आपको पूरी तरह अक्षम

ही पाते हैं, यह अलहदा बात है कि वे देश की अर्थव्यवस्था को भी सुधार पाने में स़क्षम नहीं हो पाए हैं।

प्रणव मुखर्जी के वित्त मंत्री पद से त्यागपत्र के उपरांत वित्त मंत्रालय अपने पास रखना मनमोहन

सिंह की पहली प्रथमिकता हो सकतीहै।

प्रणव मुखर्जी की उम्मीदवारी के साथ ही यह साफ हो गया था कि प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह देश

के अगले राष्ट्रपति नहीं होंगे, वे कुछ समय तक और प्रधानमंत्री आवास का लुत्फ उठाएंगे। प्रणव

मुखर्जी के त्यागपत्र के उपरांत रिक्त होने वाले केंद्रीय वित्त मंत्रालय के प्रभार को प्रधानमंत्री

अपने ही पास रख सकते हैं। कयास लगाए जा रहे हैं कि अब देश के पास अगला वित्त मंत्री नहीं होगा

कहने का तात्पर्य यह कि प्रधानमंत्री ही अपने दायित्वों के साथ अगले वित्त मंत्री हो सकते हैं।

इसके पीछे कारण यह बताया जा रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी द्वारा मनमोहन

सिंह को अल्टीमेटम दिया गया है कि वे बेहतर अर्थशास्त्री होने की बात को प्रमाणित करें और जल्द

ही देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाएं। इसके लिए मनमोहन सिंह को वित्त मामलों में फ्री हेण्ड

मिलने की उम्मीद जताई जा रही है।

पीएमओ के सूत्रों का कहना है कि चूंकि प्रणव मुखर्जी का संसदीय जीवन बेहद लंबा था और मनमोहन

सिंह पहले प्रणव मुखर्जी के मातहत रह चुके हैं अतः नार्थ ब्लाक में प्रणव मुखर्जी के रहते मनमोहन

सिंह के द्वारा अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाना दुष्कर ही साबित हो रहा था। कांग्रेस के अंदर भी देश की

बिगड़ती अर्थव्यवस्था को लेकर जमकर तलवारें पज रही हैं।

सूत्रों का कहना है कि अनेक बार कैबनेट और कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में अर्थव्यवस्था को लेकर

जमकर हंगामा हुआ। कांग्रेस के सदस्यों का कहना था कि वे देश की पटरी पर से उतरी अर्थव्यवस्था के

लिए प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन ंिसह या वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी में से किसे जिम्मेवार समझें?

राजा का वनवास लगभग पूरा: बन सकते हैं मंत्री

(शरद खरे)

नई दिल्ली ! राजा दिग्विजय सिंह का वनवास लगभग पूरा होने को है। 2003 में चुनाव हारते ही सक्रिय राजनीति से

दस सालों के वनवास की घोषणा को दिग्विजय सिंह ने निभाया और उनका वनवास इस साल के अंत में

पूरा हो रहा है।

राजा दिग्विजय सिंह ने भले ही सक्रिय राजनीति से सन्यास लिया हो, पर कांग्रेस के संगठनात्मक पदों

पर वे बने रहे और अपने विवादित बयानों के चलते मीडिया की सुर्खियां भी खूब बटोरी हैं राजा दिग्विजय

सिंह ने। ज्ञातव्य है कि 2003 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के पूर्व राजा दिग्विजय सिंह ने कहा

था कि अगर वे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार नहीं बनवा पाए तो दस साल के लिए वे राजनीति

से दूर रहेंगे।

इधर कांग्रेस के अंदरखाने से छन छन कर बाहर आ रही खबरों के अनुसार कांग्रेस अब बदलाव की बयार

बहाने को तैयार है और वह अपने अंदर कामराज योजना को लागू करने का मन बना रही है, जिसके तहत

संगठन के कुछ पदाधिकारियों को लाल बत्ती से नवाजकर सरकार में हिस्सेदारी दी जाएगी।

कांग्रेस के सूत्रों का कहना है कि एआईसीसी चीफ सोनिया गांधी ने राजा दिग्विजय सिंह को यह संकेत

भी दिया है कि वे केंद्र में मंत्री बनने को तैयार रहें। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को ठिकाने लगाने के आरोपों

के बाद भी राजा दिग्विजय सिंह को सांसद ना रहते हुए भी दिल्ली में साउथ एवेन्यू के स्थान पर बड़ा

बंग्ला देने की तैयारी की जा रही है जो इस बात का संकेत है कि आने वाले दिनों में राजा की तूती केंद्र में

बोलने वाली है।

ज्ञातव्य है कि गत मई माह में ही राजा दिग्विजय सिंह साउथ एवेन्यू के अपने बंग्ले को छोड़कर लोधी

स्टेट में 64 नंबर की कोठी जो केंद्रीय मंत्री व्ही.किशोर चंद देव के नाम से आवंटित है। केंद्र सरकार

द्वारा सरकारी खर्च पर इस बंग्ले में रंग रोगन और इसकी साज सज्जा करवाई जा रही है। कहा जा रहा है

कि अगले फेरबदल में राजा दिग्विजय सिंह को केंद्र में लाल बत्ती से नवाजा जाना लगभग तय ही है।

मंत्रालय की आग पर रहस्य बरकारा

(दीपक अग्रवाल)

मुंबई। दक्षिण मुंबई में स्थित महाराष्ट्र सरकार के मुख्यालय-मंत्रालय की चार मंजिलों में कल

भीषण आग लगने से दो लोगों की मृत्यु हो गई और सोलह जख्मी हो गए। पुलिस नियंत्रण कक्ष के

अनुसार मंत्रालय की छठी मंजिल से दो व्यक्तियों के पूरी तरह जले हुए शव बरामद किए गए। इन दोनों

मृतकों की पहचान उमेश कोटेकर और महेश घुगले के रूप में हुई है। दोनों बारामती के हैं।

कहा जा रहा है कि आग पर काबू पा लिया गया है, लेकिन अग्निशमन अधिकारियों ने बताया कि अभी यह

कार्रवाई दो दिन और चलेगी। इस बीच मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने इस घटना की जांच अपराध

शाखा से कराने के आदेश दिए हैं। उन्होंने कहा कि हम सीधे यूं ही किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकते।

सच्चाई का पता करने के लिए अपराध शाखा को जांच के आदेश दे दिये गये हैं।

उन्होंने कहा कि मंत्रालय में आज कामकाज होगा। राज्य के मंत्री वैकल्पिक कार्यालयों में काम करेंगे।

हालांकि आगंतुकों को प्रवेश की अनुमति नहीं होगी। हमारी संवाददाता के अनुसार आग पर काबू पाने के

लिए २१ दमकल गाड़ियों को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। राहत सहायता के लिए नौसेना के हेलिकॉप्टरों

और आतंकवाद विरोधी इकाई-फोर्स-वन की भी मदद ली गई।

पुलिस के मुताबिक इमारत की छठी मंजिल पर दो लोगों के जले हुए शव बरामद हुए तथा मुख्यमंत्री

पृथ्वीराज चौहान के केबिन के बाहर तैनात दो सुरक्षाकर्मी अभी भी लापता हैं। सभी जख्मियों की हालत

स्थिर बताई जा रही है, सिवाय एक के जिसकी हालत नाजुक बनी हुई है। अग्निशमन दल के अधिकारियों

के मुताबिक आग को पूरी तरह काबू में लाया गया है पर कूलिंग ऑपरेशन में और दो दिन लग सकते हैं। इस

भीषण आग में इमारत की सातवीं मंजिल पर बने हुए कम्युनिकेशन सेंटर जिसके जरिये राज्य के सभी

जिला मुख्यालयों से संपर्क साधा जाता है, उसे भी भारी नुकसान पहुंचा है।

गुरुवार को दोपहर बाद मुंबई के मंत्रालय बिल्डिंग में लगी आग के कारणों के बारे में अभी यही जानकारी

दी जा रही है कि आग शार्ट सर्किट की वजह से लगी है लेकिन क्या मंत्रालय भवन में यह आग सचमुच

शार्ट सर्किट से लगी है या फिर इसे जानबूझकर लगाई गई है? सवाल इसलिए क्योंकि अगर यह आग

अपने आप लगी थी तो इसे तय मानकों पर समय रहते पूरा करने में प्रशासन नाकाम क्यों रहा? आखिर

क्या कारण है कि आग लगने के बाद भी मंत्रालय का सेफ्टी अलार्म नहीं बजा और बिना अलार्म के ही

करीब पांच हजार लोगों को तो बाहर निकाल लिया गया?

महाराष्ट्र सरकार के सचिवालय मंत्रालय के चौथे मंजिल पर लगी आग पर अब ऐसी ही आशंकाओं के

बादल मंडराने लगे हैं। सरकारी तौर पर यह बताया जा रहा है आग शार्ट सर्किट होने की वजह से लगी।

मुंबई में भले ही इन दिनों बारिश नहीं हो रही है लेकिन बुधवार को पिछले एक साल का सबसे कम तापमान

रिकार्ड किया गया था। गुरूवार को भी कमोबेश तापमान 31 डिग्री सेल्सियस के आस पास बना रहा था।

अगर मुंबई में गर्मी नियंत्रित है, मंत्रालय की अति सुरक्षित बिल्डिंग है तो फिर शार्ट सर्किट होने का

सवाल ही कहां उठता है? अगर हम मान भी लें कि शार्ट सर्किट हुआ तो फिर तीन मिनट के अंदर फायर

अलार्म क्यों नहीं बजा?

आग लगने के बाद भी आग पर तत्काल काबू पाने के प्रयास नहीं किये गये। मानों आग को बढ़ने देने की

कोई सोची समझी साजिश को अंजाम दिया जा रहा था। प्रशासन की ओर से तत्काल आग पर काबू पाने

की कोशिश न करने के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि पानी की व्यवस्था नहीं थी जबकि जानकार बताते

हैं कि मंत्रालय में इतनी पक्की व्यवस्था रहती है कि छोटे मोटे हादसों पर तत्काल अपने स्तर पर काबू

पाया जा सकता है। लेकिन मंत्रालय में लगी आग को मानों बढ़ने दिया गया जो देर शाम तक जल रही थी।

इस आग में चौथा, पांचवां और छठा, और सातवीं मंजिल आग के हवाले हो गई। इन सभी मंजिलों पर

महत्वपूर्ण मंत्रालयतों के दफ्तर हैं और संबंधित मंत्री और बड़े अधिकारी इन्हीं मंत्रालयों में बैठते

हैं। चौथी मंजिल पर शहरी विकास विभाग है। इसी विभाग के पास आदर्श की फाइलें भी थीं। और मुंबई के

समृद्ध रियल एस्टेट से जुड़ी सभी नोटिंग लगी महत्वपूर्ण फाइलें भी इसी विभाग में थी। अब आग में

सबकुछ स्वाहा हो गया। आश्चर्य तो तब और बढ़ जाता है जब सातवीं मंजिल पर बना आपदा नियंत्रण

का दफ्तर भी इस आग के हवाले हो जाता है और अपने आपको बचा नहीं पाता है।

इस बाबत पूछे जाने पर शिवसेना के मुखपत्र सामना के कार्यकारी संपादक प्रेम शुक्ल का कहना है

कि ‘तीन साल पहले डीबी रियलिटी को मंत्रालय की मरम्मत और देखरेख का काम देने का प्रस्ताव

लेकर कांग्रेसी सरकार सामने आई थी। उस वक्त छगन भुजबल के विरोध के कारण डीबी रियलिटी

को मंत्रालय सौंपने से मना कर दिया गया था। लेकिन अब पुननिर्माण के नाम पर हो सकता है डीबी

रियलिटी को यह काम सौंप दिया जाए।‘ वे सवाल करते हैं कि आग लगी हो या फिर लगाई गई हो लेकिन

ऐसा लगता है कि इसे जानबूझकर बढ़ने दिया गया जो किसी साजिश की ओर संकेत करता है।

सोनिया ने जलील करवाया मुलायम को: स्वामी

(दीपांकर श्रीवास्तव)
जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने गुरुवार को कहा कि

समाजवादी पार्टी (सपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह का अपमान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया

गांधी के इशारे पर किया गया है। राजधानी लखनऊ में स्वामी ने कहा, ‘कांग्रेसी नेता राशिद अल्वी ने

मुलायम के खिलाफ जो बयान दिया था, वह सोनिया गांधी के इशारे पर दिया गया था। सोनिया जानबूझकर

मुलायम का अपमान कराना चाहती थीं।

उन्होंने कहा कि मुलायम ने ही सोनिया को प्रधानमंत्री बनने से रोका था। यही वजह है कि वह बदले की

राजनीति कर रही हैं। स्वामी ने कहा, ‘सोनिया एक ऐसी महिला हैं जो हमेशा यह चाहती हैं कि लोग उनके

सामने झुके रहें। इसलिए जानबूझकर वह ऐसे बयान दिलवाती हैं।‘

स्वामी ने कहा, कि राशिद अल्वी के बयान को लेकर मैने मुलायम से फोन पर बात की है। उन्होंने उम्मीद

जताई है कि वह अपने आत्मसम्मान के साथ समझौता नहीं करेंगे। उन्होंने कहा, कि उन्होंने मुलायम

से यह भी अपील की कि वह कांग्रेस का साथ छोड़कर राष्ट्रपति चुनाव में संगमा की उम्मीदवारी का

समर्थन करें।

उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राशिद अल्वी ने बुधवार को मुरादाबाद में एक कार्यक्रम के

दौरान मुलायम के बारे में बयान दिया था। बयान में उन्होंने कहा था कि मुलायम भारतीय जनता पार्टी

(भाजपा) के सबसे बड़े एजेंट हैं। वैसे दिल्ली पहुंचने के बाद अल्वी ने अपना बयान वापस ले लिया।

दादा का स्थान लेंगे अहमद पटेल……..

(शरद खरे)

नई दिल्ली (साई)। कांग्रेस में संकट मोचक की भूमिका अदा करने वाले प्रणव मुखर्जी अब चंद दिनों तक

ही सक्रिय राजनीति कर पाएंगे, क्योंकि अगले कुछ दिनों में दादा देश के महामहिम राष्ट्रपति के लिए

नामांकन दाखिल कर देंगे। अगर वे राष्ट्रपति चुन लिए जाते हैं तो फिर कांग्रेस को टाटा बाय बाय कहना

उनकी मजबूरी होगी, और नहीं चुने जाते तो अपनी ढलती उमर को देखकर वे राजनीति से सन्यास भी ले

सकते हैं।

अब कांग्रेस के अंदरखाने में कौन बनेगा करोड़पति में पांच करोड़ रूपए का अंतिम सवाल कंप्यूटर

स्क्रीन पर आ चुका है कि अब तक कांग्रेस के संकटमोचक बने प्रणव मुखर्जी के जाने के बाद आने

वाली रिक्तता को कौन भरेगा? कांग्रेस का अगला संकटमोचक कौन बनेगा? कौन बनेगा दादा का

उत्तराधिकारी?

इस सवाल के जवाब में कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा संभावित नामों की श्रेणी में राजा दिग्विजय सिंह,

अहमद पटेल, सुरेश पचौरी, राजीव शुक्ला, गुलाम नबी आजाद, सुशील कुमार ंिशदे आदि का नाम बताया

जा रहा है। इनमें से राजा दिग्विजय सिंह के बड़बोले पन के चलते उनका नाम खारिज हो गया बताया जाता

है।

रही बात राजीव शुक्ला की तो वे अभी जूनियर की श्रेणी में आते हैं। सुरेश पचौरी की उम्मीदवारी प्रबल है,

किन्तु उनके विरोधियों की संख्या देखकर एसा प्रतीत नहीं होता कि इतनी महत्वपूर्ण जवाबदारी उनके

कांधों पर डाली जाएगी। गुलाम नबी आजाद और सुशील कुमार शिंदे भी इस तस्वीर में फिट नहीं बैठ पा रहे

हैं।

अब नाम बचता है सोनिया गांधी के राजनैतिक मशविरा देने वाले सलाहकार अहमद पटेल का। अहमद

पटेल को वैसे भी राहुल का अघोषित सलाहकार बना दिया गया है। सूत्रों की मानें तो कांग्रेस के सत्ता और

शक्ति के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ में खासी दखल रखने वाले अहमद पटेल को ना केवल प्रणव मुखर्जी के

लिए रायसीना हिल्स के मार्ग प्रशस्त करने का काम सौंपा गया है, वरन् उन्हें उपराष्ट्रपति के लिए भी

एकराय बनाने की जिम्मेवारी सौंपी गई है।

10, जनपथ के सूत्रों का कहना है कि अहमद पटेल ने नितीश कुमार पर भी डोरे डाले हुए हैं। पटेल ने जनता

दल यूनाईटेड और भारतीय जनता पार्टी के बीच चल रही दोस्ती में भी दरार डाल दी है। गौरतलब है कि

बिहार गए हर एक केंद्रीय मंत्री ने पटना से उस समय ही रवानगी डाली है जब वे मुख्यमंत्री नितीश

कुमार के साथ बैठकर चाय पी चुके।

इसके अलावा कांग्रेस ने नितीश कुमार को आर्थिक मदद भी की है। कांग्रेस ने बिहार की सड़कों के लिए

चार सौ करोड़ रूपए का पैकेज भी मंजूर किया है। सूत्रों ने बताया कि कांग्रेस अपने संप्रग कुनबे में जदयू

के लिए कुर्सी आरक्षित करने की इच्छुक नहीं है पर वह चाहती है कि राजग के परिदृश्य से जदयू को

गायब करवा दिया जाए।

दस जनपथ के भरोसेमंद सूत्र बताते हैं कि इन सारे समीकरणों के चलते यही माना जा रहा है कि आने वाले

समय में जैसे ही प्रणव मुखर्जी देश के राष्ट्रपति बनकर रायसीना हिल्स चले जाएंगे वैसे ही अहमद

पटेल का कद अपने आप बढ़ जाएगा, और उन्हें केंद्र में जवाबदारी सौंपने पर भी मंत्रता चल रही है।